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________________ गिरिराजकी पैदल यात्रा 319 इसके सिवाय एक बात और है। वह यह कि बाईजी हमारे पास एक हजार रुपया इस शर्तपर जमाकर गई थीं कि इसका पाँच रूपया मासिक ब्याज भैयाको देते जाना, सो लीजिये और यदि आप रुपया लेना चाहते हैं तो वह भी लीजियें, मुझे कोई आपत्ति नहीं। रुपया ले लेनेपर भी पाँच रुपया मासिक भेजता जाऊँगा। आपको मैं अपना मानता हूँ। मैने कहा-'मुझे रुपया नहीं चाहिए । बाईजी के भावका मैं व्याघात नहीं कर सकता। मैं पाँच रुपया मासिक ब्याजका ही लेनेवाला हूँ। रुपया यहाँ की पाठशाला के नाम जमा करा दीजियें।' झाँसीके राजमल्लजी साहब भी यहाँ आये। इनका सर्राफजी के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था। सर्राफजीके परम हितैषी और उन्हें योग्य सम्मति देनेवाले थे। बहुत ही सज्जन धार्मिक व्यक्ति थे। इनकी सम्मतिसे सर्राफ मूलचन्द्रजी ने झाँसीमें एक मकान ले लिया, जिसका चार सौ रुपया मासिक किराया आता पन्द्रह दिन बरुआसागर रहकर शुभ मुहूर्तमें श्रीगिरिराजके लिए प्रस्थानकर दिया। प्रथम दिन की यात्रा पाँच मीलकी थी, निवारी ग्राम में पहुँचा। साथमें कमलापति और चार जैनी भाई थे। साथमें एक ठेला था, जिसमें सब सामान रहता था। उसे दो आदमी ले जाते थे। जब थक जाते थे तब अन्य दो आदमी ठेलने लगते थे। मैं तीन मील चला और इतना थक गया कि पैर चलनेमें बिलकुल असमर्थ हो गये। मुझे बहुत ही खेद हुआ और मनमें यह भावना हुई कि 'हे प्रभो ! ऐसे किस पापका उदय आया कि मेरी शक्ति एकदम क्षीण हो गई। हमारे साथ जो जैनी थे उनमेंसे एक बोला कि 'आप इतनी चिन्ता क्यों करते हैं ? श्रीपार्श्वप्रभु सब अच्छा करेंगे। मालूम होता है, आपने एक मसल नहीं सुनी-'साम्हर दूर सिमरिया नियरी। मैंने कहा-इसका अर्थ समझाइयें ?' वह बोला-'पहले जमानेमें इस तरह रेल-मोटरोंका सुभीता न था। साम्हर स्थान मारवाड़में है। वहाँ नमककी झील है। वहाँसे सिमरिया गाँव पाँच सौ मील है। यह गाँव पन्ना रियासतमें है। पहले जमानेमें बैलोंके जरिये व्यापार होता था। साम्हरके एक सेठका सिमरियावाले पर कुछ रुपया आता था। वह उसकी वसूलीके लिये सिमरिया चला। जब गाँवके बाहर आया तब नौकरसे पूछता है कि सिमरिया कितनी दूर है ?' नौकरने जवाब दिया-साम्हर दूर सिमरिया नियरी । यद्यपि यहाँसे साम्हर एक मील है, परन्तु उसके लिये आपने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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