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________________ मेरी जीवनगाथा 318 कहा- 'बेटा ! संसार मरता है, इसमें आश्चर्य की कौन-सी कथा है। गुलाबचन्द्र ने कहा कि 'समाधिमरण के लिये सबसे ममता त्यागों।' बाप बड़ा भोला था । बोला- 'अच्छा तेरे वचन मान्य हैं। कुछ देर बाद गुलाबचन्द्र दवाई लाकर बोला- 'पिताजी ! औषधि लीजिये ।' बाप बोला- 'बेटा अभी तूने कहा था कि सबसे ममता छोड़ो। मैंने वही किया। देख, इसलिए मैं खाट से उतरकर नीचे बैठ गया। सब कपड़ा छोड़ दिये। केवल धोती नहीं छोड़ी जाती। नंगे होने में लज्जा आती है। अब मैं न तो पानी पीऊँगा और न अन्न ही खाऊँगा ।' गुलाबचन्द्रने कहा - पिताजी ! मैंने सरल भाव से कहा था।' मेरा यह भाव थोड़े ही था कि तुम सब छोड़ दो।' बापने कहा - 'आप कुछ कहो, मैं तो सब कुछ छोड़ चुका। अब जमीन पर ही लेदूँगा और भगवान्‌का स्मरण करूँगा ।' यह वार्ता ग्राम भरमें फैल गई परन्तु उसने किसीकी नहीं सुनी और दो दिन परमेष्ठीका स्मरण करते हुए निर्विघ्न रूपसे परलोक यात्रा की । इस गाँवसे चलकर बरुआसागर आ गये और स्टेशनके ऊपर बाबा रामस्वरूपके यहाँ ठहर गये। साथ में कमलापति सेठ भी थे । यहाँ पर स्टेशनसे दो फर्लांग की दूरी पर सर्राफ मूलचन्द्रजीकी दुकान है। दुकानके पास ही एक अट्टालिका पर जिन चैत्यालय है, जिसमें श्रीपार्श्वनाथ स्वामीकी मनोज्ञ प्रतिमा है। बाबू रामस्वरूप जीने चैत्यालय को सुसज्जित बना रक्खा है । यहाँ से आध फर्लाड्.ग पर एक छोटी-सी पहाड़िया है, जिसके ऊपर सर्राफजीने एक पार्श्वनाथ विद्यालय खोल रक्खा है और जिसके व्यय के लिये झाँसीके पाँच कोठे लगा दिये हैं। पहाड़ी के नीचे एक कुँआ भी खुदवा दिया है। यहाँ से दो फर्लांग की दूरी पर एक बाग है जिसमें आम, अमरूद आदि अनेक फल तथा शाकादिकी उत्पत्ति होती है । स्थान सुरम्य तथा जलवायुकी स्वच्छता से पठन-पाठन के लिये उपयुक्त है । परन्तु बरुआसागरवाले महानुभावोंकी उसमें प्रीति नहीं। हाँ, बाबू रामस्वरूपजी की पूर्ण दृष्टि है। बाबू साहबके समागमसे शास्त्रप्रवचनमें बड़ा आनंद रहता था। सर्राफ मूलचन्द्रजी भी प्रतिदिन आते थे। इनका हमसे हार्दिक प्रेम था । एक दिन बोले- 'आप गिरिराजको जा रहे हैं. .. यह सुनकर हमारा दिल टूटा जा रहा है। आपहीके स्नेहसे मैंने यह विद्यालय खोला था और आप हीके स्नेहसे इसे निरन्तर खींचता रहता हूँ। मैं आपकी आज्ञाका पालन करता हूँ तथा यथाशक्ति और भी दान करने को तैयार हूँ.. . यदि आप रहें तो । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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