SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गिरिराजकी पैदल यात्रा 317 से भायजी साहब आये तब कहने लगी कि 'मुझसे बड़ी गलती हुई। व्यर्थ ही आपको कड़ा लेने का दोष लगाया। भायजी साहब ने कहा-'कुछ हर्ज नहीं। वस्तु खो जाने पर सन्देह हो जाता है। अब यह कड़ा रहने दो। __एक बारकी बात है, आप ललितपुर से घोड़े पर कपड़ा लेकर घर जा रहे थे। अटवीके बीच में सामायिक का समय हो गया। साथियों ने कहा-'एक मील और चलिये। यहाँ घनी अटवी है। इसमें चोरों का डर है।' भायजी साहब बोले-'आप लोग जाइये। हम तो सामायिक के बाद ही यहाँ से चलेंगे और घोड़े पर से कपड़े का गट्ठा उतारकर घोड़े को बाँध दिया तथा आप सामायिक के लिये बैठ गये। इतने में चोर आये और कपड़े के गढे लेकर चले गये। थोड़ी दूर जाकर चोरों के दिल में विचार आया कि हम लोग जिसका कपड़ा चुरा लाये वह बेचारा मूर्ति की तरह बैठा रहा, मानों साधु हो, ऐसे महापुरूष की चोरी करना महापाप है। ऐसा विचार कर लौटे और कपड़े के गढे जहाँसे उठाये थे वहीं रख दिये और कहने लगे कि 'महाराज ! आपके गढे रखे हैं। अन्य कोई चोर आपको तंग न करे इसलिए अपना एक आदमी छोड़ जाते हैं। इतना कह कर वे चोर आगे चले तथा जो लोग भायजी साहब को घनी अटवी में छोड़कर आगे चले गये थे उन्हें लूट लिया और पीटा भी। भायजी के पास जो आदमी बैठा था उसने सामायिक पूरी होने पर उनसे कहा -कि 'महाराज ! अपना कपड़ा संभालो। अब हम जाते है'.......ऐसी अनेक घटनाएँ आपके जीवनचरित्र की है। एक घटना यह भी लिखने की है कि आप यू. पी. प्रान्त में एक स्थान पर पढ़ने के लिए गये। वहाँ आपने एक पैसे की लकड़ी में बारह माह रोटी बनाई और अन्त में वह पैसा भी बचा लाये। लोग इसे गप्प समझेंगे पर यह गप्प नहीं। आप बाजार से एक पैसे की लकड़ी लाते थे, उसमें रोटी बना लेते और कोयला बुझा लेते थे तथा उसे एक पैसा में सुनारको बेच देते थे। यहाँ पर उनके बनाये देवीविलास आदि ग्रन्थ देखने में आये। दिगौड़ा से चलकर दुमदुमा आये। 'यहाँ पर बाईजी की सास की बहिन का लड़का गुलाबचन्द्र है। बड़ा सज्जन मनुष्य है। उसका बाप बड़ा भोलाभाला था। जब उसका अन्तकाल आया तब गुलाबचन्द्र ने कहा कि 'पिताजी ! आपके चिह्नों से आपका मरण आसन्न जान पड़ता है।" पिता ने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy