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मेरी जीवनगाथा
जैनधर्म न मानेगी तो मैं उसका सम्बन्ध छोड़ दूंगा। बहुत तरहसे बाईजीने समझाया, परन्तु यहाँ तो मूढ़ता थी, एक भी बात समझमें न आई।
यदि दूसरा कोई होता, तो मेरे इस व्यवहारसे रुष्ट हो जाता। फिर भी बाईजी शान्त रहीं, और उन्होंने समझाते हुए कहा-'अभी तुम धर्मका मर्म नहीं समझते हो, इसीसे यह गलती करते हो।' मैं फिर भी जहाँ-का तहाँ बना रहा। बाईजीके इस उपदेशका मेरे ऊपर कोई प्रभाव न पड़ा। अन्तमें बाईजीने कहा-'अविवेकका कार्य अन्तमें सुखावह नहीं होता।' अस्तु,
सायंकालको बाईजीने दूसरी बार भोजन कराया, परन्तु मैं अब तक बाईजीसे संकोच करता था। यह देख बाईजीने फिर समझाया-'बेटा ! माँसे संकोच मत करो।
रात्रिको फिर शास्त्रसभा हुई, भायजी साहबने शास्त्रप्रवचन किया, क्षुल्लक महाराज भी प्रवचनमें उपस्थित थे। उन्हें देख मेरी उनसे अत्यन्त भक्ति हो गई। मैंने रात्रि उन्हींके सहवासमें निकाली। प्रातःकाल नित्यकार्यसे निवृत्त होकर श्री जिनमन्दिर गया और वहाँ दर्शन, पूजन व स्वाध्याय करनेके बाद क्षुल्लक महाराजकी वन्दना करके बहुत ही प्रसन्न चित्तसे याञ्चा की। निवेदन किया-'महाराज ! ऐसा उपाय बताओ, जिससे मेरा कल्याण हो सके। मैं अनादिकालसे इस संसार बन्धनमें पड़ा हूँ। आप धन्य हैं, यह आपकी ही सामर्थ्य है जो इस पदको अंगीकार कर आत्महितमें लगे हो। क्या कोई ऐसा उपाय है, जिससे मेरा भी हित हो।
क्षुल्लक महाराजने कहा-'हमारे समागममें रहो और शास्त्र लिखकर आजीविका करो। साथ ही व्रत-नियमोंका पालन करते हुए आनन्दसे जीवन बिताओ। आत्महित होना दुर्लभ नहीं !'
मैंने कहा-'आपके साथ रहना इष्ट है, परन्तु आपका यह आदेश कि शास्त्रोंको लिखकर आजीविका करो, मान्य नहीं। आजीविका का साधन तो मेरे लिये कोई कठिन नहीं, क्योंकि मैं अध्यापकी कर सकता हूँ। वर्तमानमें यही आजीविका मेरी है भी। मैं तो आपके साथ रहकर धार्मिकी तत्त्वोंका परिचय प्राप्त करना चाहता था। यदि आप इस कार्यकी अनुमति दें, तो मैं आपका शिष्य हो सकता हूँ। किन्तु जो कार्य आपने बताया है वह मुझे इष्ट नहीं । संसारमें मनुष्य जन्म मिलना अति दुर्लभ है। आप जैसे महान् पुरुषों के सहवाससे आपकी सेवावृत्ति करते हुए हमारे जैसे क्षुद्र पुरुषोंका भी कल्याण हो यही हमारी भावना है।
यह सुन पहले तो महाराज अचरजमें पड़ गये। बादमें उन्होंने कहा 'यदि तुमको मेरा कहना इष्ट नहीं, तो जो तुम्हारी इच्छा हो, सो करो।'
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