SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयपुरकी असफल यात्रा 11 उस समय वहाँ उस गाँवके प्रतिष्ठित व्यक्ति बसोरेलाल आदि बैठे हुए थे। वे मुझसे बोले-'तुम चिन्ता न करो, हमारे यहाँ रहो और हम लोगोंको दोनों समय पुराण सुनाओ। हम लोग आपको कोई कष्ट न होने देगें।' वहाँ पर बाईजी भी बैठी थीं। सुनकर कुछ उदास हो गई और बोलीं-'बेटा ! घरपर चलो। मैं उनके साथ घर चला गया। ___घर पहुँचनेपर सान्तवना देते हुए उन्होंने कहा-'बेटा ! चिन्ता मत करो, मैं तुम्हारा पुत्रवत् पालन करूँगी। तुम निःशल्य होकर धर्मपालन करो और दशलक्षणपर्वमें यहीं आ जाओ, किसीके चक्करमें मत आओ। क्षुल्लक महाराज स्वयं पढ़े नहीं हैं, तुम्हें वे क्या पढ़ायेंगे ? यदि तुम्हें विद्याभ्यास करना ही इष्ट है, तो जयपुर चले जाना।' यह बात आजसे ५० वर्ष पहले की है। उस समय इस प्रान्तमें कहीं भी विद्याका प्रचार न था। ऐसा सुननेमें आता था कि जयपुरमें बड़े-बड़े विद्वान हैं। मैं बाईजीकी सम्मतिसे सन्तुष्ट हो मध्याह्नोपरान्त जतारा चला गया। भाद्रमास था, संयमसे दिन बिताने लगा, पर संयम क्या वस्तु है, यह नहीं जानता था। संयम समझकर भाद्रमास भरके लिये छहों रस छोड़ दिये थे। रस छोड़नेका अभ्यास तो था नहीं, इससे महान् कष्टका सामना करना पड़ा। अन्नकी खुराक कम हो गई और शरीर शक्तिहीन हो गया। व्रतोंमें बाईजीके यहाँ आनेपर उन्होंने व्रतका पालन सम्यक् प्रकारसे कराया और अन्तमें यह उपदेश दिया--'तुम पहले ज्ञानार्जन करो, पश्चात् व्रतोंको पालना, शीघ्रता मत करो, जैनधर्म संसारसे पार करनेकी नौका है, इसे पाकर प्रमादी मत होना, कोई भी काम करो, समतासे करो। जिस कार्यमें आकुलता हो, उसे मत करो।' ___ मैंने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की और भाद्रमासके बीतने पर निवेदन किया कि 'मुझे जयपुर भेज दो।' बाईजीने कहा-'अभी जल्दी मत करो, भेज देंगे।' मैंने पुनः कहा-'मैं तो जयपुर जाकर विद्याभ्यास करूँगा।' बाईजी बोलीं-'अच्छा बेटा, जो तुम्हारी इच्छा हो, सो करो।' जयपुरकी असफल यात्रा जाते समय बाईजीने कहा-'भैया ! तुम सरल हो, मार्गमें सावधानीसे जाना, ऐसा न हो कि सब सामान खोकर फिर वापिस आ जाओ।' मैं श्रीबाईजीके चरणोंमें प्रणाम कर सिमरासे श्रीसोनागिरीको यात्राको चल पड़ा। यहाँसे सोलह मील मऊरानीपुर है। वहाँ आया और वहाँके जिनालयोंके दर्शन कर आनन्दमें मग्न हो गया। वहाँसे रेलगाड़ीमें बैठकर श्रीसोनागिरि पहुँच Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy