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धर्ममाता श्री चिरौंजाबाई
उस दिन भोजन भी बाईजीके घर था। बाईजी साहब हम तीनोंको भोजनके लिए ले गईं। चौकामें पहुँचनेपर अपरिचित होने के कारण मैं भयभीत होने लगा, किन्तु अन्य दोनों जन चिरकालसे परिचित होने के कारण बाईजीसे वार्तालाप करने लगे। परन्तु मैं चुपचाप भोजन करनेके लिए बैठ गया। यह देख बाईजीने मुझसे स्नेह भरे शब्दोंमें कहा-'भयकी कौन-सी बात है ? सुखपूर्वक भोजन करो।'
मैं फिर भी नीची दृष्टि किये चुपचाप भोजन करता रहा। वह देख बाईजीसे न रहा गया। उन्होंने भायजी व वर्णीजीसे पूछा-'क्या यह मौनसे भोजन करता है ?' उन्होंने कहा-'नहीं, यह आप से परिचित नहीं है। इसीसे इसकी ऐसी दशा हो रही है।
इस पर बाईजीने कहा-'बेटा सानन्द भोजन करो, मैं तुम्हारी धर्ममाता हूँ, यह सब तुम्हारे लिए है, कोई चिन्ता न करो, मैं जब तक हूँ, तुम्हारी रक्षा करूँगी।
____ मैं संकोचमें पड़ गया। किसी तरह भोजन करके बाईजीकी स्वाध्यायशाला में चला गया। वहीं पर भायजी व वर्णीजी आ गये। भोजन करने के बाद बाईजी भी वहीं पर आ गईं। उन्होंने मेरा परिचय पूछा । मैंने जो कुछ था, वह बाईजीसे कह दिया। परिचय सुनकर प्रसन्न हुईं। और उन्होंने भायजी तथा वर्णीजीसे कहा-'इसे देखकर मुझे पुत्र जैसा स्नेह होता है-इसको देखते ही मेरे भाव हो गये हैं कि इसे पुत्रवत् पालूँ।'
बाईजीके ऐसे भाव जानकर भायजीने कहा-'इसकी माँ और धर्मपत्नी दोनों हैं।'
बाईजीने कहा-'उन दोनोंको भी बुला लो, कोई चिन्ताकी बात नहीं, मैं इन तीनोंकी रक्षा करूँगी।'
भायजी साहबने कहा-'इसने अपनी माँको एक पत्र डाला है। जिसमें लिखा है कि यदि जो तुम चार मासमें जैनधर्म स्वीकार न करोगी तो मैं तुमसे सम्बन्ध छोड़ दूँगा।
यह सुन बाईजीने भायजीको डाँटते हुए कहा-'तुमने पत्र क्यों डालने दिया ?' साथ ही मुझे भी डाँटा-'बेटा ! ऐसा करना तुम्हें उचित नहीं। इस संसार में कोई किसीका स्वामी नहीं, तुमको कौन-सा अधिकार है जो उसके धर्मका परिवर्तन कराते हो।'
मैंने कहा-'गलती तो हुई। परन्तु मैंने प्रतिज्ञा ले ली थी कि यदि वह
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