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मेरी जीवनगाथा
आपका जन्म सफल हो और आपकी चरणसेविका बहूका भी संस्कार उत्तम हो। आशा है, मेरी विनयसे आपका हृदय द्रवीभूत हो जायगा। यदि इस धर्मका अनुराग आपके हृदयमें न होगा। तब न तो आपके साथ ही मेरा कोई सम्बन्ध रहेगा और न ही आपकी बहू के साथ ही। मैं चार मास तक आपके चरणोंकी प्रतीक्षा करूँगा। यद्यपि ऐसी प्रतिज्ञा न्यायके विरुद्ध है, क्योंकि किसीको यह अधिकार नहीं कि किसीका बलात्कारपूर्वक धर्म छुड़ावे, तो भी मैंने यह नियम कर लिया है कि जिसको जिनधर्मकी श्रद्धा नहीं उसके हाथका भोजन नहीं करूँगा। अब आपकी जैसी इच्छा हो, सो करें।'
पत्र डालकर मैं निःशल्य हो गया और श्रीभायजी तथा वर्णी मोतीलालजीके सहवाससे धर्म-साधनमें काल बिताने लगा। तब मर्यादाका भोजन, देवपूजा, स्वाध्याय तथा सामायिक आदि कार्यो में सानन्द काल जाता था।
धर्ममाता श्री चिरौंजाबाईजी एक दिन श्रीभायजी व वर्णीजीने कहा-'सिमरामें चिरौंजाबाई बहुत सज्जन और त्यागकी मूर्ति हैं, उनके पास चलो।'
मैंने कहा-'आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, परन्तु मेरा उनसे परिचय नहीं, उनके पास कैसे चलूँ ?'
तब उन्होंने कहा-'वहाँ पर एक क्षुल्लक रहते हैं। उनके दर्शनके निमित्त चलो, अनायास बाईजीका भी परिचय हो जायेगा।
____ मैं उन दोनों महाशयों के साथ सिमरा गया। यह गाँव जतारासे चार मील पूर्व है। उस समय वहाँपर दो जिनालय और जैनियोंके बीस घर थे। वे सब सम्पन्न थे। जिनालयों के दर्शन कर चित्त बहुत प्रसन्न हुआ। एक मन्दिर बाईजीके श्वसुरका बनवाया हुआ है। इसमें संगमरमरकी वेदी और चार फुटकी एक सुन्दर मूर्ति है, जिसके दर्शन करनेसे बहुत आनन्द आया । दर्शन करनेके बाद शास्त्र पढ़ने का प्रसंग आया। भायजीने मुझसे शास्त्र पढ़नेको कहा। मैं डर गया। मैंने कहा-'मुझे तो ऐसा बोध नहीं जो सभामें शास्त्र पढ़ सकूँ। फिर क्षुल्लक महाराज आदि अच्छे-अच्छे विज्ञ पुरुष विराजमान हैं। उनके सामने मेरी हिम्मत नहीं होती। परन्तु भायजी साहबके आग्रहसे शास्त्रगद्दीपर बैठ गया। यद्यपि चित्त कम्पित था, तो भी साहस कर बाँचनेका उद्यम किया। दैवयोगसे शास्त्र पद्मपुराण था, इसलिए विशेष कठिनाई नहीं हुई। दस पत्र बाँच गया। शास्त्र सुनकर जनता प्रसन्न हुई, क्षुल्लक महाराज भी प्रसन्न हुए।
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