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मार्गदर्शक कडोरेलालजी भायजी
नहीं चाहता। जिनदेवके सिवा अन्यमें मेरी जरा भी अभिरुचि नहीं।
___ उन्होंने कहा-'धर्मका स्वरूप जाननेके लिए काल चाहिये, आगमाभ्यासकी महती आवश्यकता है। इसके बिना तत्त्वोंका निर्णय होना असम्भव है। तत्त्वनिर्णय आगमज्ञ पण्डितोंके सहवाससे होगा, अतः तुम्हें उचित है कि शास्त्रोंका अध्ययन करो।'
___मैंने कहा-'महाराज ! तत्त्व जाननेवाले महात्मा लोगोंका निवास स्थान कहाँ पर है ?
उन्होंने कहा-'जयपुरमें अच्छे-अच्छे विद्वान् हैं। वहाँ जानेसे तुम्हें यह लाभ हो सकेगा।
मैं रह गया, कैसे जयपुर जाया जाय ?
उनका आदेश था कि पहले अपनी धर्मपत्नी और पूज्य माताको बुलाओ फिर सानन्द धर्मपालन करो। मैंने उसे शिरोधार्य किया और एक पत्र उसी दिन अपनी माँको डाल दिया। पत्रमें लिखा था
___ 'हे माँ ! मैं आपका बालक हूँ, बाल्यावस्थासे ही बिना किसीके उपदेश तथा प्रेरणाके मेरा जैनधर्ममें अनुराग है। बाल्यावस्थामें ही मेरे ऐसे भाव होते थे कि हे भगवन् मैं किस कुलमें उत्पन्न हुआ हूँ ? जहाँ न तो विवेक है और न कोई धर्मकी ओर प्रवृत्ति ही है। धर्म केवल पराश्रित ही है। जहाँ गायकी पूजाकी जाती है, ब्राह्मणोंको भगवान्के समान पूजा जाता है, भोजन करनेमें दिन-रातका भेद नहीं किया जाता है। ऐसी दुर्दशामें रहकर मेरा कल्याण कैसे होगा ? हे प्रभो ! मैं किसी जैनीका बालक क्यों न हुआ ? जहाँ पर छना पानी, रात्रि भोजनका त्याग, किसी अन्य धर्मीके हाथकी बनी हुई रोटीका न खाना, निरन्तर जिनेन्द्रदेवकी पूजन करना, स्तवन करना, गा-गाकर पूजन करना, स्वाध्याय करना, रोज रात्रिको शास्त्रसभाका होना, जिसमें मुहल्ला भरकी स्त्री-समाज और पुरुषसमाजका आना, व्रत नियमोंके पालने का उपदेश होना आदि धर्मके कार्य होते हैं। मैं यदि ऐसे कुलमें जनमता तो मेरा भी कल्याण होता ....! परन्तु आपके भयसे मैं नहीं कहता था। आपने मेरे पालन-पोषणमें कोई त्रुटि नहीं की। यह सब आपका मेरे ऊपर महोपकार है। मैं हृदयसे वृद्धावस्थामें आपकी सेवा करना चाहता हूँ, अतः आप अपनी वधूको लेकर यहाँ आ जावें । मैं यहाँ मदरसामें अध्यापक हूँ। मुझे छुट्टी नहीं मिलती, अन्यथा मैं स्वयं आपको लेनेके लिए आता। किन्तु आपके चरणोंमें मेरी एक प्रार्थना अब भी है। वह यह कि आपने अब तक जिस धर्ममें अपनी ६० वर्षकी आयु पूर्णकी, अब उसे बदलकर श्रीजिनेन्द्रदेव द्वारा प्रकाशित धर्मका आश्रय लीजिए, जिससे
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