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________________ मेरी जीवनगाथा पालन करना उचित है। मैंने कहा-'आपका कहना ठीक है परन्तु मेरी स्त्री और माँ हैं, जो कि वैष्णवधर्मको पालनेवाली हैं। मैंने बहुत कुछ उनसे आग्रह किया कि यदि आप जैनधर्म स्वीकार करें तो मैं आपके सहवासमें रहूँगा, अन्यथा मेरा आपसे कोई सम्बन्ध नहीं। माँ ने कहा-'बेटा ! इतना कठोर बर्ताव करना अच्छा नहीं, मैंने तुम्हारे पीछे क्या क्या कष्ट सहे, यदि उनका दिग्दर्शन कराऊँ, तो तुम्हें रोना आ जायेगा। परन्तु मैंने एक न सुनी; क्योंकि मेरी श्रद्धा तो जैनधर्मकी ओर झुक गई थी। उस समय विवेक था ही नहीं, अतः माँ से यहाँ तक कह दिया-'यदि तुम जैनधर्म अंगीकार न करोगी तो माँ ! मैं आपके हाथका भोजन तक न करूँगा।' मेरी माँ सरल थीं, रह गईं और रोने लगीं। उनकी यह धारणा थी कि अभी छोकरा है, भले ही इस समय मुझसे उदास हो जाय, कुछ हानि नहीं, परन्तु स्त्रीका मोह न छोड़ सकेगा। उसके मोहवश झक मारकर घर रहेगा। परन्तु मेरे हृदयमें जैनधर्मकी श्रद्धा होनेसे अज्ञानतावश ऐसी धारणा हो गई थी कि 'जितने जैनी होते हैं वे सब ही उत्तम प्रकृतिके मनुष्य होते हैं। इसके सिवा दूसरोंसे सम्बन्ध रखना अच्छा नहीं।' अतः मैंने माँसे कह दिया-'अब न तो हम तुम्हारे पुत्र ही हैं और न तुम हमारी माता हो।' यही बात स्त्रीसे भी कह दी; जब ऐसे कठोर वचन मेरे मुखसे निकले, तब मेरी माता और स्त्री अत्यन्त दुःखी होकर रोने लगीं, पर मैं निष्ठुर होकर वहाँसे चला गया। यह बात जब भायजीने सुनी तब उन्होंने बड़ा डाँटा और कहा-'तुम बड़ी गलतीपर हो। तुम्हें अपनी माँ और स्त्रीका सहवास नहीं छोड़ना चाहिये। तुम्हारी उम्र ही कितनी है, अभी तुम संयमके पात्र नहीं हो, एक पत्र डालकर उन दोनोको बुला लो। यहाँ आनेसे उनकी प्रवृत्ति जैनधर्ममें हो जायेगी। धर्म क्या है ? यह भी तुम नहीं जानते। धर्म आत्माकी वह परिणति है जिसमें मोह-राग-द्वेषका अभाव हो। अभी तुम पानी छानकर पीना, रात्रिको भोजन नहीं करना, मन्दिरमें जाकर भगवान्का दर्शन कर लेना, दुखित-बुभुक्षित-तृषित प्राणिवर्गके ऊपर दया करना, स्त्रीसे प्रेम नहीं करना, जैनियों के सहवासमें रहना और दूसरोंके सहवासका त्याग करना आदिको ही धर्म समक्ष बैठे हो।' ____ मैंने कहा-'भायजी साहब ! मेरी तो यही श्रद्धा है जो आप कह रहे हैं। जो मनुष्य या स्त्री जैनधर्मको नहीं मानते उनसे सहवास करनेको मेरा चित्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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