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मार्गदर्शक कड़ोरेलालजी भायजी
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सनातन धर्ममें आ जाओ और सानन्द जीवन बिताओ। ये विचार सुनकर मेरा उससे प्रेम हट गया। मुझे आपत्ति-सी अँचने लगी; परन्तु उसे छोड़नेको असमर्थ था। थोड़े दिन बाद मैंने कारीटोरन गाँवकी पाठशालामें अध्यापकी कर ली और वहीं उसे बुला लिया। दो माह आमोद-प्रमोदमें अच्छी तरह निकल गये। इतनेमें मेरे चचेरे भाई लक्ष्मणका विवाह आ गया। उसमें वह गई, मेरी माँ भी गई, और मैं भी गया। वहाँ पंक्तिभोजनमें मुझसे भोजन करनेके लिए आग्रह किया गया। मैंने काकाजीसे कहा कि 'यहाँ तो अशद्ध भोजन बना है। मैं पंक्तिभोजनमें सम्मिलित नहीं हो सकता। इससे मेरी जातिवाले बहुत क्रोधित हो उठे, नाना अवाच्य शब्दोंसे मैं कोशा गया। उन्होंने कहा-'ऐसा आदमी जातिबहिष्कृत क्यों न किया जाय, जो हमारे साथ भोजन नहीं करता, किन्तु जैनियोंके चौकोंमें खा आता है।'
___ मैंने उन सबसे हाथ जोड़कर कहा कि 'आपकी बात स्वीकार है।' और दो दिन रहकर टीकमगढ़ चला आया। वहाँ आकर मैं श्रीराम मास्टरसे मिला। उन्होंने मुझे जतारा स्कूलका अध्यापक बना लिया। यहाँ आनेपर मेरा पं. मोतीलालजी वर्णी, श्रीयुत कड़ोरेलाल भायजी तथा स्वरूपचन्द बनपुरिया आदिसे परिचय हो गया।
इससे मेरी जैनधर्ममें और अधिक श्रद्धा बढ़ने लगी। दिन-रात धर्मश्रवणमें समय जाने लगा। संसारकी असारता पर निरन्तर परामर्श होता था। हम लोगोंमें कड़ोरेलालजी भायजी अच्छे तत्त्वज्ञानी थे। उनका कहना था-'किसी कार्यमें शीघ्रता मत करो, पहले तत्त्वज्ञानका सम्पादन करो, पश्चात् त्यागधर्मकी ओर दृष्टि डालो।
परन्तु हम और मोतीलाल वर्णी तो रंगरूट थे ही, अतः जो मनमें आता, सो त्याग कर बैठते । वर्णीजी पूजनके बड़े रसिक थे। वे प्रतिदिन श्रीजिनेन्द्रदेवकी पूजन करनेमें अपना समय लगाते थे। मैं कुछ-कुछ स्वाध्याय करने लगा था और खाने-पीनेके पदार्थों के छोड़नेमें ही अपना धर्म समझने लगा था। चित्त तो संसारसे भयभीत था ही।
एक दिन हम लोग सरोवर पर भ्रमण करनेके लिये गये। वहाँ मैंने भायजी साहबसे कहा-'कुछ ऐसा उपाय बतलाइये, जिस कारण कर्मबन्धनसे मुक्त हो सकूँ।
उन्होंने कहा-'उतावली करनेसे कर्मबन्धनसे छुटकारा न मिलेगा, शनैः-शनैः कुछ-कुछ अभ्यास करो, पश्चात् जब तत्त्वज्ञान हो जावे, तब रागादि निवृत्तिके लिए व्रतोंका
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