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मेरी जीवनगाथा
पिताजीकी आँखोंके सामने अँधेरा छा गया। उन्होंने मनमें णमोकार मन्त्रका स्मरण किया, दैवयोगसे शेर शेरनी मार्ग काटकर चले गये । यही उनकी जैनमतमें दृढ़ श्रद्धाका कारण हुआ ।
स्वर्गवासके समय उन्होंने मुझे यह संदेश दिया कि
'बेटा, संसारमें कोई किसीका नहीं.... यह श्रद्धान दृढ़ रखना । तथा मेरी एक बात और दृढ़ रीतिसे हृदयंगम कर लेना । वह यह कि मैंने णमोकार मन्त्रके स्मरणसे अपनेको बड़ी-बड़ी आपत्तियों से बचाया है। तुम निरंतर इसका स्मरण रखना । जिस धर्ममें यह मंत्र है उस धर्मकी महिमा का वर्णन करना हमारेसे तुच्छ ज्ञानियोंद्वारा होना असम्भव है। तुमको यदि संसार-बन्धनसे मुक्त होना इष्ट है तो इस धर्ममें दृढ़ श्रद्धान रखना और इसे जाननेका प्रयास करना । बस, हमारा यही कहना है।'
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जिस दिन उन्होंने यह उपदेश दिया था, उसी दिन सायंकालको मेरे दादा, जिनकी आयु ११० वर्षकी थी, बड़े चिन्तित हो उठे । अवसानके पहले जब पिताजीको देखनेके लिये वैद्यराज आये, तब दादाने उनसे पूछा'महाराज ! हमारा बेटा कब तक अच्छा होगा ?'
वैद्य महोदयने उत्तर दिया- 'शीघ्र नीरोग हो जायगा ।'
यह सुनकर दादाने कहा - 'मिथ्या क्यों कहते हो ? वह तो प्रातःकाल तक ही जीवित रहेगा । दुःख इस बातका है कि मेरी अपकीर्ति होगी- बुड्ढ़ा तो बैठा रहा, पर लड़का मर गया।' इतना कहकर वे सो गये । प्रातः काल मैं दादाको जगाने गया, कौन जागे ? दादाका स्वर्गवास हो चुका था । उनका दाह कर आये ही थे कि मेरे पिताका भी वियोग हो गया। हम सब रोने लगे, अनेक वेदनाएँ हुईं, पर अन्तमें सन्तोष कर बैठ गये ।
मेरे पिता ही व्यापार करते थे, मैं तो बुद्धू था ही- कुछ नहीं जानता था । अतः पिताके मरनेके बाद मेरी माँ बहुत व्यथित हुई। इससे मैंने मदनपुर गाँवमें मास्टरी कर ली । वहाँ चार मास रह कर नार्मल स्कूलमें शिक्षा लेनेके अर्थ आगरा चला गया, परन्तु वहाँ दो मास ही रह सका। इसके बाद अपने मित्र ठाकुरदासके साथ जयपुरकी तरफ चला गया। एक माह बाद इन्दौर पहुँचा, शिक्षा विभागमें नौकरी कर ली । देहातमें रहना पड़ा । वहाँ भी उपयोगकी स्थिरता न हुई, अतः फिर देश चला आया ।
मार्गदर्शक कड़ोरेलालजी भायजी
दो मासके बाद द्विरागमन हो गया । मेरी स्त्री भी माँके बहकावेमें आ गई और कहने लगी- 'तुमने धर्म परिवर्तन कर बड़ी भूल की, अब फिर अपने
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