________________
जन्म और जैनत्वकी ओर आकर्षण
पर पटक दिया और गुरुजीसे कहा-'महाराज ! जिसमें ऐसा दुर्गन्धित पानी रहता है, उसे आप पीते हैं ? मैंने तो उसे फोड़ दिया, अब जो करना हो, सो करो। . गुरुजी प्रसन्न होकर कहने लगे-'तुमने दस रुपयेका हुक्का फोड़ दिया, अच्छा किया, अब न पियेंगे, एक बला टली। मेरी प्रकृति बहुत भीरु थी, मैं डर गया, परन्तु उन्होंने सांत्वना दी। कहा-'भयकी बात नहीं।'
मेरे कुलमें यज्ञोपवीत संस्कार होता था। १२ वर्ष की अवस्था में बढ़ेरा गाँवसे मेरे कुल-पुरोहित आये, उन्होंने मेरा यज्ञोपवीतसंस्कार कराया, मन्त्रका उपदेश दिया। साथमें यह भी कहा कि यह मन्त्र किसी को मत बताना, अन्यथा अपराधी होंगे।
मैंने कहा-'महाराज ! आपके तो हजारों शिष्य हैं। आपको सबसे अधिक अपराधी होना चाहिये। आपने मुझे दीक्षा दी, यह ठीक नहीं किया, क्योंकि आप स्वयं सदोष हैं।'
इस पर पुरोहितजी मेरे ऊपर बहुत नाराज हुए। माँ ने भी बहुत तिरस्कार किया, यहाँ तक कहा कि ऐसे पुत्रसे तो अपुत्रवती ही मैं अच्छी थी। मैंने कहा-'माँजी ! आपका कहना सर्वथा उचित है, मैं अब इस धर्ममें नहीं रहना चाहता। आजसे मैं श्री जिनेन्द्रदेवको छोड़कर अन्यको न मानूँगा। मेरा पहलेसे यही भाव था। जैनधर्म ही मेरा कल्याण करेगा। बाल्यावस्थासे ही मेरी रुचि इसी धर्मकी ओर थी।
मिडिल क्लासमें पढ़ते समय मेरे एक मित्र थे, जिनका नाम तुलसीदास था। ये ब्राह्मण-पुत्र थे। मुझे दो रुपया मासिक वजीफा मिलता था। यह रुपया मैं इन्हींको दे देता था। जब मैं मिडिल पास कर चुका, तब मेरे गाँवमें पढ़नेके साधन न थे, अतः अधिक विद्याभ्याससे मुझे वञ्चित रहना पड़ा। चार वर्ष मेरे खेल-कूदमें गये। पिताजीने बहुत कुछ कहा-'कुछ धन्धा करो' परन्तु मेरेसे कुछ नहीं हुआ।
मेरे दो भाई और थे, एकका विवाह हो गया था, दूसरा छोटा था। वे दोनों ही परलोक सिधार गये। मेरा विवाह अठारह वर्षमें हुआ था। विवाह होनेके बाद ही पिताजीका स्वर्गवास हो गया था। उनकी जैनधर्ममें ही दृढ़ श्रद्धा थी। इसका कारण णमोकार मन्त्र था।
वह एक बार दूसरे गाँव जा रहे थे, साथमें बैलपर दुकानदारीका सामान था। मार्गमें भयंकर वन पार करके जाना था। ठीक बीचमें, जहाँ दो कोश गाँव इधर-उधर न था, शेर-शेरनी आ गये। बीस गजका फासला था, मेरे
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org