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मेरी जीवनगाथा
इस संकटसे मेरी रक्षा हो गयी थी। मेरी आयु जब ६ वर्ष की हुई, तब मेरे पिता मड़ावरा आ गये थे। तब यहाँ पर मिडिल स्कूल था, डाकखाना था और पुलिसथाना भी था। नगर अतिरमणीय था। यहाँ पर १० जिनालय और दिगम्बर जैनियोंके १५० घर थे। प्रायः सब सम्पन्न थे। दो घराने तो बहुत ही धनाढ्य और जनसमूहसे पूरित थे।
___ मैंने ७ वर्षकी अवस्थामें विद्यारम्भ किया और १४ वर्षकी अवस्थामें मिडिल पास हो गया । चूँकि यहाँ पर यहीं तक शिक्षा थी, अतः आगे नहीं बढ़ सका। मेरे विद्यागुरु श्रीमान् पण्डित मूलचन्द्रजी ब्राह्मण थे, जो बहुत ही सज्जन थे। उनके साथ मैं गाँवके बाहर श्रीरामचन्द्रजीके मन्दिरमें बाहर जाया करता था। वहीं रामायणपाठ होता था। उसे मैं सानन्द श्रवण करता था। किन्तु मेरे घरके सामने एक जिनालय था, इसलिये वहाँ भी जाया करता था। उस मुहल्लेमें जितने घर थे, सब जैनियोंके थे, केवल एक घर बढ़ईका था। उन लोगोंके सहवाससे प्रायः हमारे पिताका आचरण जैनियोंके सदृश हो गया था। रात्रिभोजन मेरे पिता नहीं करते थे।
जब मैं १० वर्षका था, तबकी बात है। सामने मन्दिरजीके चबूतरेपर प्रति दिन पुराण-प्रवचन होता था। एक दिन त्यागका प्रकरण आया। इसमें रावणके परस्त्री-त्याग व्रत लेनेका उल्लेख किया गया था। बहतसे भाइयोंने प्रतिज्ञा ली, मैंने भी उस दिन आजन्म रात्रिभोजन त्याग दिया। इसी त्यागने मुझे जैनी बना दिया।
एक दिनकी बात है, मैं शालाके मन्दिरमें गया। दैवयोगसे उस दिन वहाँ प्रसादमें पेड़ा बाँटे गये, मुझे भी मिलने लगे। तब मैंने कहा-'मैंने तो रात्रिका भोजन त्याग दिया है। यह सुन मेरे गुरुजी बहुत नाराज हुए। बोले, छोड़नेका क्या कारण है ? मैंने कहा-'गुरु महाराज ! मेरे घरके सामने जिनमन्दिर है। वहाँ पर पुराण-प्रवचन होता है। उसको श्रवण कर मेरी श्रद्धा उसी धर्ममें हो गई है। पद्मपुराणमें पुरुषोत्तम रामचन्द्रजीका चरित्र चित्रण किया है। वही मुझे सत्य भासता है। रामायणमें रावणको राक्षस और हनुमानको बन्दर बतलाया है। इसमें मेरी श्रद्धा नहीं है। अब मैं इस मन्दिरमें नहीं जाऊँगा। आप मेरे विद्यागुरु हैं, मेरी श्रद्धाको अन्यथा करनेका आग्रह न करें।
__गुरुजी बहुत ही भद्र प्रकृतिके थे, अतः वे मेरे श्रद्धानके साधक हो गये। एक दिनका जिकर है-मैं उनका हुक्का भर रहा था। मैंने हुक्का भरनेके समय तमाखू पीनेके लिये चिलमको पकड़ा, हाथ जल गया। मैंने हुक्का जमीन
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