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________________ जन्म और जैनत्वकी ओर आकर्षण नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते। चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे ।। मेरा नाम गणेश वर्णी है। जन्म सम्वत् १६३१ कुँवार वदि ४ को हसेरे गाँवमें हुआ था। यह जिला ललितपुर (झाँसी), तहसील महारोनीके अन्तर्गत मदनपुर थानेमें स्थित है। पिताका नाम श्री हीरालालजी और माताका नाम उजियारी था। मेरी जाति असाटी थी। यह प्रायः बुन्देलखण्डमें पाई जाती है। इस जातिवाले वैष्णव धर्मानुयायी होते हैं। पिताजीकी स्थिति सामान्य थी। वे साधारण दुकानदारीके द्वारा अपने कुटुम्बका पालन करते थे। वह समय ही ऐसा था, जो आजकी अपेक्षा बहुत ही अल्प द्रव्यमें कुटुम्बका भरण-पोषण हो जाता था। उस समय एक रुपयामें एक मनसे अधिक गेहूँ, तीन सेर घी और आठ सेर तिलका तेल मिलता था। शेष वस्तुएँ इसी अनुपातसे मिलती थीं। सब लोग कपड़ा प्रायः घरके सूतका पहिनते थे। सबके घर चरखा चलता था। खानेके लिए घी, दूध भरपूर मिलता था। जैसा कि आज कल देखा जाता है उस समय क्षय-रोगियोंका सर्वथा अभाव था। आजा-दादाकी आयु ५० वर्षकी होने पर मेरे पिताका जन्म हुआ था। इसके बाद पिताके दो भाई और हुए थे, जो क्रमशः आजा-दादाकी ६० और ७० वर्षकी उम्रमें जन्मे थे। तब दादीकी आयु ४०, ५०, ६० वर्षकी थी। __उस समय मनुष्यों के शरीर सुदृढ़ और बलिष्ठ होते थे। वे अत्यन्त सरल प्रकृतिके होते थे। अनाचार नहीं-के-बराबर था। घर-घर गायें रहती थीं। दूध और दहीकी नदियाँ बहती थीं। देहातमें दूध और दहीकी बिक्री नहीं होती थी। तीर्थयात्रा सब पैदल करते थे। लोग प्रसन्नचित्त दिखाई देते थे। वर्षाकालमें लोग प्रायः घर ही रहते थे। वे इतने दिनोंका सामान अपने-अपने घर ही रख लेते थे। व्यापारी लोग बैलोंका लादना बन्द कर देते थे। वह समय ही ऐसा था, जो इस समय सबको आश्चर्यमें डाल देता है। बचपनमें मुझे असाताके उदयसे सूकीका रोग हो गया था। साथ ही लीवर आदि भी बढ़ गया था। फिर भी आयुष्कर्मके निषेकोंकी प्रबलताके कारण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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