________________
मेरी जीवनगाथा
312
यही बात सेठ कमलापतिजीने भी कही कि 'यदि केवल वर्णीजी स्थिर हो जावें . तो हम अनायास स्थिर हो जावेंगे और इनके साथ आजन्म जीवन निर्वाह करेंगे। इन्हीकी चंचल प्रकृति है।' मैने कहा-'यदि मैं रेल की सवारी छोड़ दूं तो आप लोग भी छोड़ सकते है ?' दोनों महाशय बोले-'इसमें क्या शक है ?' मैं भोला-भाला उन दोनों महाशयों के जाल में फँस गया। उसी क्षण उनके समक्ष प्रतिज्ञा कर ली कि 'मैने आजन्म रेल की सवारी त्याग दी, आप दोनों कहिये क्या कहते है ?
पण्डित मोतीलाल वर्णीने उत्तर दिया कि 'पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठाको छोड़कर रेलमें न बैलूंगा। इसी प्रकार सेठ कमलापतिजी ने भी कहा कि 'मैं सालमें एक बार रेल पर जाऊँगा तथा एक बार आऊँगा' और मुझसे भी कहने लगे कि आप भी इसी प्रकार नियम करिये एकदम त्यागना अच्छा नहीं। मैं तो अपने विचारोंपर दृढ़ रहा, परन्तु उन लोगों ने जो कहा उसे बदलने को राजी नहीं हुए........इस प्रकार भाद्र मास सानन्द बीता, खतौलीवाले खतौली चले गये, वर्णी मोतीलालजी जतारा गये, सेठ कमलापतिजी बरायठा गये पर हम लाचार थे, अतः रह गये।
आधे आश्विन में पैदल सागर आ गये। मेरे आने के पहले ही बाईजीकी ननद ललिताबाईका स्वर्गवास हो गया था। उसके पास जो पाँच सौ रूपया थे वे उसकी ओर से सागर पाठशाला में दे दिये। पन्द्रह दिन सागर रहे, परन्तु उपयोग की स्थिरता नहीं हुई। यहाँ पर मुलाबाई थी, उसने भी बहुत समझाया, परन्तु चित्तका क्षोभ न गया। धर्मशाला में पहुँचते ही ऐसा लगने लगा, मानों बाईजी धीमी आवाज से कह रही हो–“भैया ! भोजन कर लो।'
गिरिराजकी पैदल यात्रा एक दिन सिंघईजीके घर भोजन के लिये गये। भोजन करने के बाद यह कल्पना मन में आई कि पैदल कर्रापुर जाना चाहिये। बाईजी तो थी ही नहीं, किससे पूछना था ? अतः मध्याह्न की सामायिक के बाद पैदल चल दिये
और एकाकी चलते चलते पाँच बजे कर्रापुर पहुँच गये। पन्द्रह मिनट बाद सिघईजीके मुनीम हजारीलाल आ गये। बहुत ही शिष्टाचार-से पेश आये। कहने लगे कि 'आपके चले आने से सिंघईजी बहुत ही खिन्न हैं। उनका अभिप्राय यह था कि यदि मुझसे मिलकर यात्रा करते तो अच्छा होता। यों तो मैं जानता हूँ कि कोई किसी का नहीं, जीव एकाकी ही जन्मता है, और एकाकी
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org