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________________ शाहपुर में 311 शाहपुर में एक दिन शाहपुरसे लोकमणि दाऊ आये। उन्होंने कहा-'शाहपुर चलिये। वहाँ साधन अच्छे हैं। उनके कहनेसे मैं शाहपुर चला गया। यहीं पर सेठ कमलापतिजी और वर्णी मोतीलालजी भी आ गये। आप लोगोंके समागमसे धार्मिक चर्चामें काल जाने लगा। यहाँपर भगवानदास भायजी बड़े धार्मिक जीव हैं। निरन्तर स्वाध्यायमें काल लगाते हैं। आपके पाँच सुपुत्र हैं और पाँचों ही पण्डित हैं तथा योग्य स्थानोंपर विद्याध्ययन कराते हैं-पं. मणिकचन्द्रजी सागर विद्यालयमें अध्ययन कराते हैं, पं. श्रुतसागरजी रामटेक गुरुकुलके मुख्याध्यापक हैं, पं. दयाचन्द्रजी पहले बीनामें थे, अब जबलपुर गुरुकुलमें मुख्याध्यापक हैं, पं. धर्मचन्द्रजी शाहपुर विद्यालयमें सुपरिन्टेन्डेन्ट पदपर नियत हैं और सबसे छोटे अमरचन्द्रजी पिता के साथ स्वाध्यायमें दत्तचित्त रहते हैं। इनके समागमसे अच्छा आनन्द रहा। यहाँकी समाज बहुत ही सच्चरित्र है और परस्पर अति संगठित भी है। यहाँपर नन्दलालजी गानेके बड़े प्रेमी हैं। हल्कू सिंघई भी बड़े धर्मात्मा हैं। इनके यहाँ पर एक बार पंचकल्याणक और एक बार गजरथ हो गया है। आपने पञ्चकल्याणकमें तीन हजार रुपया दिये थे जिनकी बदौलत आज शाहपुरमें एक विद्यालय चल रहा है। इस विद्यालयमें ग्रामवालोंने शक्तिसे बाहर दान दिया है। आज शाहपुरमें एक विद्यालय है जिसमें ५० छात्र अध्ययन कर रहे हैं। २० छात्र उसकी बोर्डिंग में हैं। यदि यहाँ पर एक लाखका ध्रौव्यफण्ड हो तो हाईस्कूल तक अंग्रेजी और मध्यमा तक संस्कृतकी शिक्षाका अच्छा प्रबन्ध हो सकता है। तथा ४० छात्र बोर्डिंग में रह सकते है, परन्तु यह सुमत होना असम्भव है। ये लोग इस तत्त्व को नहीं समझते। भाद्रमासमें खतौलीसे लाला त्रिलोकचन्द्र, लाला हुकुमचन्द्र सलावावाले और पं. शीतलाप्रसादजी शाहपुराके आने से तात्त्विक चर्चा का विशेष आनन्द रहा। एक दिन हम, कमलापति सेठ और वर्णी मोतीलाललजी परस्परमें धार्मिक भावों की समालोचना कर रहे थे। सब लोक यही कहते थे कि 'धर्म कल्याणकारी है, पर उसका यथाशक्ति आचरण भी करना चाहिये। कोई कहता था कि 'एकान्तमें रहना अच्छा है, क्योकि यातायात में बड़ा कष्ट होता है तथा अन्तरंग धर्म भी नही पलता।' वर्णी मोतीलालजीने कहा कि 'यदि वर्णी गणेशप्रसादजी यातायात छोड़ देवें तो हम अनायास उनके साथ रहने लगेंगे।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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