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________________ मेरी जीवनगाथा 310 गई, मैं आपको भोजन बनाकर खिलाऊँगी।' मैंने कहा-'मुलाबाई ! मेरे पास जो कुछ था वह तो मैं दे चुका। अब मेरे पास एक पैसा भी नहीं है, किसीसे माँगने की आदत नहीं। यद्यपि सिंघईजी सब कुछ करने को तैयार हैं, परन्तु माँगनेमें लज्जा आती है।' सान्त्वना देती हुई मुलाबाई बोली-'भैया ! कुछ चिन्ता मत करो। मेरे पास जो कुछ है उससे आप निर्वाह करिये। बहुत कुछ है। मैंने आपको बड़ा भाई माना है। आखिर मेरा धन कब काम आवेगा ? मेरे कौन बैठा है ?..... इत्यादि बहुत कुछ सान्त्वना उसने दी परन्तु चित्तकी उदासीनता न गई। एक दिन विचार किया कि यदि यहाँसे द्रोणगिरि चला जाऊँ तो वहाँ शान्ति मिलेगी। विचारकर मोटर स्टेण्डपर आया। वहाँ भैयालालजी गोदरेने सबसे अगाड़ीकी सीटपर बैठा दिया। एक घण्टा बाद मोटर छुट गई। मलहराका टिकट था। मोटर बण्डा पहुँची। वहाँ ड्राईवरने कहा-वर्णीजी ! आप इस सीटको छोड़कर बीचमें बैठ जाइये। मैं बोला-'क्यों ?' 'यहाँ दरोगा साहब आते हैं, वे शाहगढ़ जा रहे हैं।' तुमने उस सीटका भाड़ा क्यों लिया ?' 'आप जानते हैं 'जबर्दस्ती का ठेंगा शिरपर' आप जल्दी सीट को त्याग दीजिए ?' 'यह तो न्याय नहीं बलात्कार है।' 'न्याय अन्यायकी कथा छोड़िये जब राज्यमें ही न्याय नहीं तब हममें कहाँ से आवेगा ? आपने मामूली किराये से एक रुपया ही तो अधिक दिया है ? पर हम दरोगा साहब की कृपासे २० के बदले ४० सवारियाँ ले जाते हैं। यदि उन्हें न ले जावें तो हमारी क्या दुर्गति होगी, आप जानते हैं। अतः इसीमें आपका कल्याण है कि आप बीचमें बैठ जाइए। अथवा आपको न जाना हो तो उतर जाइये। यदि आप न उतरेंगे तो बलात्कार मुझे उतारना होगा। आपको अदालतकी शरण लेनी है, भले ही लीजिए। परन्तु मैं इस सीटपर न बैठने दूँगा।' __ मैं चुपचाप गाड़ीसे उतर गया और उस दिनसे यह प्रतिज्ञा की कि अब आजन्म मोटरपर न बैलूंगा। वहाँ से उतरकर धर्मशालामें ठहर गया। रात्रिको शास्त्र प्रवचन किया। ‘पराधीन स्वप्नहु सुख नाही' यह लोकोक्ति बार-बार याद आती रही। दो दिन यहाँ रहा। पश्चात् सागर चला आया और जिस मकानपर मैं रहता था उसीमें रहने लगा। बहुत कुछ उपाय किये, पर चित्त शान्त नहीं हुआ। अषाढ़का महीना था, अतः कहीं जा भी नहीं सकता था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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