SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाधि के बाद समाधि के बाद जब किसीका इष्ट वियोग होता था तो मैं समझाने लगता था कि भाई ! यह संसार है। इसका यही स्वरूप है। जिसका संयोग होता है उसका वियोग अवश्य होता है, अतः शोक करना व्यर्थ है । पर बाईजीका वियोग होने पर मैं स्वयं शोक करने लगा। लोक लज्जाके कारण यद्यपि शोकके चिह्न वाह्यमें प्रकट नहीं हो पाते थे, परन्तु अंतरंगमें अधिक वेदना रहती थी। इससे सिद्ध होता है कि यह मोहका संस्कार बड़ा प्रबल है । घरमें रहनेसे चित्त निरन्तर अशान्त रहता था, अतः दिनके समय किसी बागमें चला जाता था और रात्रिको पुस्तकावलोकन करता रहता था। मेरा जो पुस्तकालय था वह मैंने स्याद्वाद विद्यालय बनारस को दे दिया। तीन दिनके बाद ललिता बोली- हम बाईजीका मरणभोज करेंगे। मैंने कहा—'अब यह प्रथा बन्द हो रही है, अतः तुम्हें भी नहीं करना चाहिए। वह बोली- 'ठीक है परन्तु हम तो केवल उन्हींके स्मरणके लिये उन्हींका धन भोजनमें लगाते हैं। आपके पास जो था उसे तो आप स्याद्वाद विद्यालयको दान कर चुके । अब हमारे पास जो है उसे लगावेंगे। उनकी आयु ७५ वर्षकी थी और अभी वृद्धजनोंका मरणभोज प्रायः सर्वत्र चालू है, अतः आप हमें यह कार्य करने दीजिए।' मैं चुप रह गया । ललिताने एक हजार मनुष्योंका भोजन बनवाया और बारहवें दिन खिलाया, विद्यालयके छात्रोंको भी भोजन कराया, अनाथालयके बालक-बालिकाओं को भी भोजन दिया तथा जितने माँगनेवाले (भिखारी) आये उन सबको भोजन दिया । पश्चात् जो बचा उसे पल्लेदारों को जो सिंघईजी आदि की दुकानों पर काम करते थे, दे दिया। फिर भी जो बचा वह बाईजी का काम करनेवाली औरतों को बाँट दिया । Jain Education International 309 बारह दिन बाद बाईजीके जो वस्त्रादि थे वे ललिता और शान्तिबाईको दे दिये। इसे बाँटनेमें ललिता और शान्तिमें परस्पर मनोमालिन्य हो गया । वास्तवमें परिग्रह ही पापकी जड़ है। ललिताने एक दिन मुझसे कहा- 'भैया ! एकान्तमें चलो।' मैं गया तब एक डबुलिया उसने दी। उसमें ५०० का माल था। उसने कहा - 'बाईजी मुझे दे गई हैं।' मैंने कहा - 'तुम रक्खो । उसने कहा - 'मुझे आवश्यकता नहीं । न जाने कौन चुरा ले जाएगा ?' इन कार्यों से निश्चिन्त होकर मैं रहने लगा, परन्तु उपयोग नहीं लगता था। मुलाबाईने बहुत समझाया- भैया ! अब चिन्ता छोड़ो। बाईजी तो For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy