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________________ मेरी जीवनगाथा 308 कहा कि 'खड़े रहनेका काम नहीं'। मैंने कहा-'तो क्या रोनेका काम है ?' वर्णीजी बोले-'तुमको तो चुहल सूझ रही है। अरे अरे जल्दी करो और उनके शवका दाह आध घण्टेमें कर दो, अन्यथा सम्मूर्छन त्रस जीवोंकी उत्पत्ति होने लगेगी। मैं तो किंकर्तव्यके ऊहापोह में पागल था, परन्तु वर्णीजीके आदेशानुसार शीघ्र ही बाईजी की अर्थी बनानेमें व्यस्त हो गया। इतने में श्रीमान पं. मुन्नालालजी, श्री होतीलालजी, पं. मूलचन्द्रजी आदि आगये और सबका यह मंसूबा हुआ कि विमान बनाया जावे। मैंने कहा कि "विमान बनानेकी आवश्यकता नहीं। शवको शीघ्र ही श्मशान भूमिमें ले जाना अच्छा है।' कटरामें श्रीयुत सिंघई राजारामजी और मौजीलालजी की दुकानसे चन्दन आ गया। श्रीयुत रामचरणलालजी भी आ गये। आपने भी कहा 'शीघ्रता करो।' हम लोगोंने १५ मिनटके बाद शव उठाया। उस समय रात्रिके दस बजे थे। बाईजीके स्वर्गवासका समाचार बिजलीकी तरह एकदम बाजारमें फैल गया और श्मशान भूमिमें पहुँचते पहुँचते बहुत बड़ी भीड़ हो गई। ___ बाईजीका दाह संस्कार श्रीरामचरणलालजी चौधरीके भाई ने किया। चिता धू धू कर जलने लगी और आध घण्टेमें शव जल कर खाक हो गया। मेरे चित्तमें बहुत ही पश्चात्ताप हुआ। हृदय रोनेको चाहता था, पर लोकलज्जाके कारण रो नहीं सकता था। जब वहाँसे सब लोग चलने को हुए तब मैंने सब भाईयोंसे कहा कि-'संसारमें जो जन्मता है उसका मरण अवश्य होता है। जिसका संयोग है उसका वियोग अवश्यंभावी है। मेरा बाईजीके साथ चालीस वर्षसे संबंध है। उन्होंने मुझे पुत्रवत् पाला । आज मेरी दशा माता विहीन पुत्रवत् हो गई है। किन्तु बाईजीके उपदेशके कारण मैं इतना दुःखी नहीं हूँ जितना कि पुत्र हो जाता है। उन्होंने मेरे लिए अपना सर्वस्व दे दिया। आज मैं जो कुछ उन्होंने मुझे दिया सबका त्याग करता हूँ और मेरा स्नेह बनारस विद्यालयसे है, अतः कल ही बनारस भेज दूंगा। अब मैं उस द्रव्यमेंसे पाव आना भी अपने खर्चमें न लगाऊँगा।' श्रीसिंघई कुन्दनलालजीने कहा कि 'अच्छा किया, चिन्ताकी बात नहीं। मैं आपका हूँ। जो आपको आवश्यकता पड़े मेरेसे पूरी करना । .... ..... इस तरह श्मशानसे सरोवर पर आये। सब मनुष्योंने स्नान कर अपने-अपने घरका मार्ग लिया। कई महाशय मुझे धर्मशालामें पहुँचा गये। यहाँ पर आते ही शान्ति, मुला और ललिता रुदन करने लगीं। पश्चात् शान्त हो गईं। मैं भी सो गया, परन्तु नींद नहीं आई, रह-रह कर बाईजीका स्मरण आने लगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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