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________________ बाईजी का समाधिमरण 305 छन्द सनानेके बाद वह भी रुदन करने लगी। बाईजीने कहा 'मुला ! ऊपर जाओ।' वह ऊपर चली गई। जब शान्तिबाईने उसे रोते देखा तब वह भी बाईजीके पास गई बाईजीने कहा-'शान्ति समाधिमरण सुनाओ।' वह भी एक दो मिनट बाद पाठ करती-करती रोने लगी। मैं जब बाजार गया तब श्री सिंघईजी मिले। उन्होंने मेरा बदन मलीन देखा और पूछा कि 'बाईजी की तबियत कैसी है ? मैंने कहा-'अच्छी है।' वे बाईजीके पास गये। बाईजीने कहा-'सिंघई भैया ! अनुप्रेक्षा सुनाओ।' वे अनुप्रेक्षा सुनाने लगे। परन्तु थोड़ी देरमें सुनाना भूलकर रुदन करने लगे। इस प्रकार जो जो आवे वही रोने लगे। तब बाईजीने कहा-'आप लोगोंका साहस इतना दुर्बल है कि आप किसीकी समाधि करानेके पात्र नहीं।' इस प्रकार बाईजीका साहस प्रतिदिन बढ़ता गया। इसके बाद बाईजीने केवल आधी छटाक दलियाका आहार रक्खा और जो दूसरी बार पानी पीती थी वह भी छोड़ दिया। सब ग्रन्थों का श्रवण छोड़ कर केवल रत्नकरण्डश्रावकाचारमेंसे सोलहकारण भावना, दशधा धर्म, द्वादशानुप्रेक्षा और समाधिमरणका पाठ सुनने लगीं। जब आयुके दो दिन रह गये तब दलिया भी छोड़ दिया, केवल पानी रक्खा और जिस दिन आयुका अवसान होनेवाला था उस दिन जल भी छोड़ दिया। उस दिन उनका बोलना बन्द हो गया। मैं बाईजीकी स्मृति देखनेके लिए मन्दिरसे पूजनका द्रव्य लाया और अर्घ बनाकर बाईजीको देने लगा। उन्होंने द्रव्य नहीं लिया और हाथका इशाराकर जल माँगा। उन्होंने हस्त प्रक्षालनकर गन्धोधककी वन्दना की। मैं फिर अर्ध देने लगा तो फिर उन्होंने हाथ प्रक्षालनके लिए जल माँगा। पश्चात् हस्त प्रक्षालनकर अर्घ चढ़ाया। फिर हाथ धोकर बैठ गई और सिलेट माँगी। मैंने सिलेट दे दी। उसपर उन्होंने लिखा कि 'तुम लोग आनन्दसे भोजन करो।' बाईजी तीन माससे लेट नहीं सकती थीं। उस दिन पैर पसार कर सो गईं। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। मैंने समझा कि आज बाईजीको आराम हो गया। अब इनका स्वास्थ्य प्रतिदिन अच्छा होने लगेगा। इस खुशीमें उस दिन हमने सानन्द विशिष्ट भोजन किया। दो बजे पं. मोतीलालजी वर्णीसे कहा कि 'बाईजी की तबियत अच्छी है, अतः घूमनेके लिए जाता हूँ।' वर्णीजीने कहा कि 'तुम अत्यन्त मूढ़ हो। यह अच्छेके चिह्न नहीं है, अवसर के चिह्न हैं।' मैंने कहा-'तुम बड़े धन्वन्तरि हो। मुझे तो यह आशा है कि अब बाईजीको आराम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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