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________________ मेरी जीवनगाथा 304 गणेशप्रसाद जिसे कि मैंने पुत्रवत् पाला है, यदि अपने पास कुछ द्रव्य रख लेता तो इसे कष्ट न उठाना पड़ता। मैंने इसे समझाया भी बहुत, परन्तु इसे द्रव्यरक्षा करनेकी बुद्धि नहीं। मैंने जब जब इसे दिया इसने पॉच या सात दिनमें सफा कर दिया। मैंने आजन्म इसका निर्वाह किया। अब मेरा अन्त हो रहा है, इसकी यह जाने, मुझे शल्य नहीं। मेरे पास जो कुछ था इसे दे दिया। एक पैसा भी मैंने परिग्रह नहीं रक्खा । मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि मेरे मरनेके बाद यह एक दिन भी मेरी दी हुई द्रव्य नहीं रख सकेगा। परन्तु अच्छे कार्यमें लगावेगा, असत् कार्यमें नहीं।' श्री लम्पूलालजीने कहा कि 'फिर इनका निर्वाह कैसे होगा ?' बाईजने कहा कि 'अच्छी तरह होगा। जैसे मेरा इनके साथ कोई जाति सम्बन्ध नही था, फिर भी मैंने इसे आजन्म पुत्रवत् पाला वैसे इनके निमित्त से अन्य कोई मिल जावेगा। इसकी पर्यायगत योग्यता बड़ी बलवती है।' बाईजीकी बात सुनकर लम्पू भैया हँस गये और उनके बाद सिंघईजी भी आये। वे भी हँसकर चले गये। एक दिन मैंने बाईजीसे कहा-'बाईजी यह शांतिबाई प्राणपनसे आपकी वैय्यावृत्य करती है, इसे कुछ देना चाहिए।' बाईजीने कहा-'तुम्हारी जो इच्छा हो सो दे दो। मैं तो द्रव्य का त्याग कर चुकी हूँ।' जब आयुमें दस दिन रह गये तब बाईजीने मुझसे कहा-'बेटा ! एकान्तमें कुछ कहना है। मैं दो बजे दिनको उनके पास जाकर बैठ गया और बोला-'बाईजी ! मैं आ गया, क्या आज्ञा है ? बाईजी बोली-'संसारमें जहाँ संयोग है वहाँ वियोग है। हमने तुम्हें चालीस वर्ष पुत्रवत् पाला है यह तुम अच्छी तरह जानते हो। इतने दीर्घकालमें हमसे यदि किसी प्रकारका अपराध हुआ हो तो उसे क्षमा करना और बेटा ! मैं क्षमा करती हूँ अथवा क्या क्षमा करूँ, मैंने हदयसे कभी भी कष्ट नहीं पहुँचाया । अब मेरी अन्तिम यात्रा है, कोई शल्य न रहे इससे आज तुम्हें कष्ट दिया । यद्यपि मैं जानती हूँ कि तेरा हृदय इतना बलिष्ठ नहीं कि इसका उत्तर कुछ देगा।' ___मैं सचमुच ही कुछ उत्तर न दे सका, रुदन करने लगा, हिलहिली आने लगी बाईजीने कहा-'बेटा जाओ बाजारसे फल लाओ' और ललितासे कहा कि 'भैयाको पाँच रुपया दे दे, फल लावे। मुझे वहाँसे कहा कि 'जाओ', मैं ऊपर गया। मुलाबाईने मुझे देखा, मेरी रुदन अवस्था देख नीचे गई। बाईजीने कहा-'मुला नाटकसमयसार सुनाओ।' वह सुनाने लगी। तीन या चार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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