SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 336
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बाईजी का समाधिमरण 303 हाथ देखकर बोला कि दवाई खानेसे अच्छा हो सकता है।' बाईजीने कहा'कब तक अच्छा होगा? उसने कहा-'यह हम नहीं जानते'। बाईजीने कहा'तो महाराज जाइये और अपनी फीस ले जाइये, मुझे न कोई रोग है और न कोई उपचार चाहती हूँ। जो शरीर पाया वह अवश्य बीतेगा, पचहत्तर वर्षकी आयु बीत गई, अब तो अवश्य जावेगी। इसके रखने की न तो इच्छा है और न ही हमारी राखी रह सकती है। जो चीज उत्पन्न होती है उसका नाश अवश्यम्भावी है। खेद इस बातका है कि यह नहीं मानता। कभी वैद्यको लाता है और कभी हकीमको। मैं औषधिका निषेध नहीं करती। मेरे नियम है कि औषध नहीं खाना। दो मास में पर्याय छुट जावेगी। इससे जहाँ तक बने परमात्माका स्मरण कर लूँ, यही परलोकमें साथ जावेगा। जन्मभर इसका सहवास रहा। इसके सहवाससे तीर्थ यात्राएँ की, व्रत तप किये, स्वाध्याय किया, धर्मकार्यों में सहकारी जान इसकी रक्षा की। परन्तु अब यह रहनेकी नहीं, अतः इससे न हमारा प्रेम है न द्वेष है।' वैद्यने मुझसे कहा कि 'बाईजीका जीव कोई महान् आत्मा है। अब आप भूलकर भी किसी वैद्यको न लाना, इनका शरीर एक मासमें छूट जावेगा। मैंने ऐसा रोगी आज तक नहीं देखा।' यह कह वैद्यराज चले गये। उनके जानेके बाद बाईजी बोली कि 'तुम्हारी बुद्धिको क्या कहे ? जो रूपया वैद्यराजको दिया। यदि उसीका अन्न मॅगाकर गरीबोंको बाँट देते तो अच्छा होता। अब वैद्यको न बुलाना।' . ___ बाईजीका शरीर प्रतिदिन शिथिल होता गया। परन्तु उनकी स्वाध्यायरुचि और ज्ञानलिप्सा कम नहीं हुई। एक दिन बीनाके श्रीनन्द लालजी आये और मुझसे मुकदमा सम्बन्धी बात करने लगे। बाईजीने तपक कर कहा-'भैया ! यहाँ अदालत नहीं अथवा वकीलका घर नहीं जो आप मुकदमाकी बात कर रहे हो, कृपया बाहर जाइये और मुझसे भी कहा कि बाहर जाकर बात कर लो, यहाँ फालतू बात मत करो।... इस तरह बाईजीकी दिनचर्या व्यतीत होने लगी। बाईजीको निद्रा नहीं आती थी। केवल रात्रिके दो बजे बाद कुछ आलस्य आता था। हमलोग रात्रि-दिन उनकी वैय्यावृत्यमें लगे रहते थे। जब बाईजीकी आयुका एक मास शेष रहा तब एक दिन श्रीलम्पूलालजी घीवालोंने पूछा कि 'बाईजी आपको कोई शल्य तो नहीं है।' बाईजी ने कहा 'अब कोई शल्य नहीं। पर कुछ दिन पहले एक शल्य अवश्य थी। वह यह कि बालक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy