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________________ मेरी जीवनगाथा 302 बाईजी का समाधिमरण बाईजीका स्वास्थ्य प्रतिदिन शिथिल होने लगा। मैंने बाईजीसे आग्रह किया कि आपकी अन्तर्व्यवस्था जाननेके लिए डाक्टरसे आपका फोटो (एक्सरा) उतरवा लिया जावे। बाईजीने स्वीकार नहीं किया। एक दिन मैं और वर्णी मोतीलालजी बैठे थे। बाईजीने कहा 'भैया ! मैं शिखरजीमें प्रतिज्ञा कर आई हूँ कि कोई भी सचित्त पदार्थ नहीं खाऊँगी। फल आदि चाहे सचित्त हों; चाहे अचित्त हों; नहीं खाऊँगी। दवाई में कोई रस नहीं खाऊँगी। गेहूं, दलिया, घी और नमकको छोड़कर कुछ न खाऊँगी। दवाईमें अलसी, अजवाइन और हरी छोड़कर अन्य कुछ न खाऊँगी। उसी समय उन्होंने शरीर पर जो आभूषण थे उतार दिये, बाल कटवा दिये, एक बार भोजन और एक बार पानी पीनेका नियम कर लिया। प्रातःकाल मन्दिर जाना, वहाँसे आकर शास्त्र स्वाध्याय करना, पश्चात् दस बजे एक छटाक दलियाका भोजन करना, शामको चार बजे पानी पीना और दिन भर स्वाध्याय करना यही उनका कार्य था। यदि कोई अन्य कथा करता तो वे उसे स्पष्ट आदेश देतीं कि बाहर चले जाओ। पन्द्रह दिन बाद जब मन्दिर जानेकी शक्ति न रही तब हमने एक ठेला बनवा लिया, उसीमें उनको मन्दिर ले जाते थे। पन्द्रह दिन बाद वह भी छूट गया, कहने लगी कि हमें जानेमें कष्ट होता है। अतः यहींसे पूजा कर लिया करेंगे। हम प्रातःकाल मंदिरसे अष्टद्रव्य लाते थे और बाईजी एक चौकीपर बैठे-बैठे पूजन पाठ करती थीं। मैं ६ बजे दलिया बनाता था और बाईजी दस बजे भोजन करती थीं। एक मास बाद आध छटाक भोजन रह गया, फिर भी उनकी श्रवणशक्ति ज्योंकी त्यों थी। श्वासरोग के कारण बाईजी लेट नहीं सकती थीं, केवल एक तकियाके सहारे चौबीस घण्टा बैठी रहती थीं। कभी मैं, कभी मुलाबाई, कभी वर्णी मोतीलालजी. कभी पं० दयाचन्द्रजी और कभी लोकमणि दाउ शाहपुर निरन्तर बाईजीको धर्मशास्त्र सुनाते रहते थे। बाईजी को कोई व्यग्रता न थी। उन्होंने कभी रोग वश 'हाय हाय' या 'हे प्रभो क्या करें' या 'जल्दी मरण आ जाओ' या कोई ऐसी औषधि मिल जावे जिससे मैं शीघ्र ही निरोग हो जाउँ ऐसे शब्द उच्चारण नहीं किये। यदि कोई आता और पूछता कि 'बाईजी ! कैसी तबियत है?' तो बाईजी यही उत्तर देतीं कि 'यह पूछनेकी अपेक्षा आपको जो पाठ आता हो सुनाओ, व्यर्थ बात मत करो।' एक दिन मैं एक वैद्यको लाया जो अत्यन्त प्रसिद्ध था। वह बाईजी का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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