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बाईजी की आत्मकथा
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साथ घनिष्ट सम्बन्ध हो गया । यहाँ अधिकांश घरों में शुद्ध भोजन की प्रक्रिया है। मैं जिस मकान में रहती थी उसीमें कुन्दनलाल घीवाले भी रहते थे, जो एक विलक्षण प्रतिभाशाली व्यक्ति थे । इस प्रकार मेरा तीस वर्षका काल सागरमें आनन्द से बीता । अन्त में कटरा संघके साथ यह मेरी अन्तिम यात्रा है । मेरा अधिकांश जीवन धर्मध्यानमें ही गया । मेरी श्रद्धा जैनधर्ममें ही आजन्मसे रही । पर्याय भरमें मैंने कभी कुदेवका सेवन नहीं किया । केवल इस बालकके साथ मेरा स्नेह हो गया । सो उसमें भी मेरा यही अभिप्राय रहा कि यह मनुष्य हो जावे और इसके द्वारा जीवोंका कल्याण हो । मेरा भाव यह कभी नहीं रहा कि वृद्धावस्थामें यह मेरी सेवा करेगा । अस्तु, मेरा कर्तव्य था, अतः उसका पालन किया ।
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हे प्रभो ! यह मेरी आत्मकथा है जो कि आपके ज्ञानमें यद्यपि प्रतिभासित है तथापि मैंने निवेदन कर दी, क्योंकि आपके स्मरणसे कल्याण का मार्ग सुलभ हो जाता है, ऐसा मेरा विश्वास है ।... इत्यादि आलोचना कर बाईजीने व्रत ग्रहण किया फिर वहाँसे चलकर हम सब तेरापन्थी कोठीमें आगये ।
यहाँ पर पं. पन्नालालजीने कहा कि 'बाईजीका स्वास्थ्य अच्छा नहीं, अतः यहीं पर रह जाओ । हम सब उनकी वैयावृत्त्य करेंगे । परन्तु बाईजीने कहा- 'नहीं, यद्यपि स्थान उत्तम है, परन्तु सर्वसाधन नहीं । अतः मैं जाऊँगी । वहाँ ही सर्वसाधन की योग्यता है ।
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दो दिन रहकर गया आये । यहाँ पर श्री I बाबू कन्हैयालालजीने बहुत आग्रह किया, अतः दो दिन यहाँ रहना पड़ा। श्री बाईजी का निमन्त्रण बाबू कन्हैयालालजीके यहाँ था। उनकी धर्मपत्नीने बाईजीका सम्यक् प्रकारसे स्वागत किया । बाईजीकी चेष्टा देखकर उसे एकदम भाव हो गया कि अब बाईजीका जीवन थोड़े दिनका है। उसने एकान्तमें मुझे बुलाकर कहा कि 'वर्णीजी ! मैं आपको बड़ा मानती हूँ, परन्तु एक बात आपके हितकी कहती हूँ । वह यह कि जब तक बाईजीका स्वास्थ्य अच्छा न हो उन्हें छोड़कर कहीं नहीं जाना, अन्यथा आजन्म आपको खेद रहेगा। मैंने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की । वहाँसे कटनी आये। श्वासरोग बाईजीको दिन-दिन त्रास देने लगा । कटनीमें मन्दिरों के दर्शनकर सागरके लिये रवाना हो गये और सागर आकर यथास्थान धर्मशालामें रहने लगे ।
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