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________________ 294 मेरी जीवनगाथा अनन्तानन्त चौबीसी मोक्ष प्राप्त कर चुकीं वहांकी पृथिवीका स्पर्श पुण्यात्मा जीवको ही प्राप्त हो सकता है । रह-रह कर यही भाव होता था कि हे प्रभो ! कब ऐसा सुअवसर आवे कि हम लोग भी दैगम्बरी दीक्षा अवलम्बनकर इस दुःखमय जगत्से मुक्त हों । I बाईजीका स्वास्थ्य श्वासरोगसे व्यथित था, अतः उन्होंने कहा- 'भैया आज ही यात्राके लिये चलना है; इसलिए यहाँसे जल्दी स्थान पर चलो और मार्गका जो परिश्रम है उसे दूर करनेके लिये शीघ्र आरामसे सो जाओ । पश्चात् तीन बजे रात्रिसे यात्राके लिये चलेंगे।' आज्ञा मानकर स्थान पर आये और सो गये। दो बजे निद्रा भंग हुई। पश्चात् शौचादि क्रिया से निवृत्त होकर एक डोली मँगाई। बाईजीको उसमें बैठाकर हम सब श्रीपार्श्वनाथ स्वामीकी जय बोलते हुए गिरिराज की वन्दनाके लिये चल पड़े। गन्धर्व नालापर पहुँचकर सामायिक क्रिया की । वहाँसे चलकर सात बजे श्रीकुन्थुनाथ स्वामीकी वन्दना की । वहाँसे सब टोंकोंकी यात्रा करते हुए दस बजे श्री पार्श्वनाथ स्वामीकी टोंक पर पहुँच गये । आनन्दसे श्री पार्श्वनाथ स्वामी और गिरिराज की पूजा की। चित्त प्रसन्नतासे भर गया । बाईजी तो आनन्दमें इतनी निमग्न हुई कि पुलकित वदन हो उठी, और गद्गद स्वरमें हमसे कहने लगी कि - 'भैया ! यह हमारी पर्याय तीन माहकी है अतः तुम हमें दूसरी प्रतिमाके व्रत दो।' मैंने कहा - 'बाईजी ! मैं तो आपका बालक हूँ, आपने चालीस वर्ष मुझे बालकवत् पुष्ट किया, मेरे साथ आपने जो उपकार किया है उसे आजन्म नहीं विस्मरण कर सकता, आपकी सहायतासे मुझे दो अक्षरोंका बोध हुआ, अथवा बोध होना उतना उपकार नहीं जितना उपकार आपका समागम पाकर कषाय मन्द होने से हुआ है, आपकी शांतिसे मेरी क्रूरता चली गई और मेरी गणना मनुष्योंमें होने लगी। यदि आपका समागम न होता तो न जाने मेरी क्या दशा होती ? मैंने द्रव्यसम्बन्धी व्यग्रताका कभी अनुभव नहीं किया, दान देनेमें मुझे संकोच नहीं हुआ, वस्त्रादिकोंके व्यवहारमें कभी कृपणता न की, तीर्थयात्रादि करनेका पुष्कल अवसर आया 'इत्यादि भूरिशः आपके उपकार मेरे उपर हैं। आप जिस निरपेक्षवृत्ति से व्रतको पालती हैं मैं उसे कहने में असमर्थ हूँ। और जब कि मैं आपको गुरु मानता हूँ तब आपको व्रत दूँ यह कैसे सम्भव हो सकता है।' बाईजी ने कहा-'बेटा! मैंने जो तुम्हारा पोषण किया है वह केवल मेरे मोहका कार्य है। फिर भी मेरा यह भाव था कि तुझे साक्षर देखूँ। तूने पढ़ने में परिश्रम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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