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शिखरजीकी यात्रा और बाईजीका व्रतग्रहण
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निश्चित है, जबतक अहंकारता न जावेगी तबतक बन्धन ही में फँसे रहोगे। जब कि यह सिद्धांत है कि सब द्रव्य पृथक्-पृथक् हैं। कोई किसीके आधीन नहीं, तब कर्तृत्वका अभिमान करना व्यर्थ है !' मैं बाईजीकी बात सुनकर चुप रह गया।
शिखरजीकी यात्रा और बाईजीका व्रतग्रहण प्रातःकाल का समय था। माघमास में कटरा बाजारके मन्दिर में आनन्द से पूजन हो रहा था। सब लोग प्रसन्नचित्त थे। सबके मुखसे श्री गिरिराजकी वन्दनाके वचन निकल रहे थे। हमारा चित्त भी भीतरसे गिरिराजकी वन्दनाके लिए उमंग करने लगा और यह विचार हआ कि गिरिराजकी वन्दनाको अवश्य जाना। मन्दिरसे धर्मशालामें आए और भोजन शीघ्रता से करने लगे। भोजन करनेके अनन्तर श्री बाईजीने कहा कि 'इतनी शीघ्रता क्यों?' 'भोजनमें शीघ्रता करना अच्छा नहीं।' मैंने कहा-'बाईजी ! कल कटरासे पच्चीस मनुष्य श्रीगिरिराजजी जा रहे हैं। मेरा भी मन श्रीगिरिराजकी यात्राके लिये व्यग्र हो रहा है।' बाईजीने कहा-'व्यग्रताकी आवश्यकता नहीं, हम भी चलेंगे। मुलाबाई भी चलेगी।'
दूसरे दिन हम सब यात्राके लिये स्टेशन से गयाका टिकट लेकर चल दिये। सागरसे कटनी पहुँचे और यहाँसे डाकगाड़ीमें बैठकर प्रातःकाल गया पहुँच गये। वहाँ श्रीजानकीदास कन्हैयालालके यहाँ भोजनकर दो बजेकी गाड़ीसे बैठकर शामको श्रीपार्श्वनाथ स्टेशन पर पहुँच गये और गिरिराजके दूरसे ही दर्शन कर धर्मशाला में ठहर गये । प्रातःकाल श्रीपार्श्वप्रभु की पूजाकर मध्याह्न बाद मोटरमें बैठकर श्रीतेरापन्थी कोठी में जा पहुंचे।
__यहाँ पर श्री पं० पन्नालालजी मैनेजरने सब प्रकारकी सुविधा कर दी। आप ही ऐसे मैनेजर तेरापन्थी कोठीको मिले कि जिनके द्वारा वह स्वर्ग बन गई। विशाल सरस्वतीभवन तथा मन्दिरोंकी सुन्दरता देख चित्त प्रसन्न हो जाता है। श्री पार्श्वनाथकी प्रतिमा तो चित्तको शान्त करनेमें अद्वितीय निमित्त है। यद्यपि उपादानमें कार्य होता है, परन्तु निमित्त भी कोई वस्तु है। मोक्ष का कारण रत्नत्रय की पूर्णता है, परन्तु कर्मभूमि, चरम शरीर आदि भी सहकारी कारण है।
सायंकालका समय था। हम सब लोग कोठीके बाहर चबूतरा पर गये। वहीं पर सामायिकादि क्रिया कर तत्त्वचर्चा करने लगे। जिस क्षेत्र से
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