SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मेरी जीवनगाथा 292 बार सब भाईयोंने इस शर्तपर जमा करा दिये कि इसका ब्याज पंडित जगन्मोहनलालजी के लिये ही दिया जावे। पाँच हजार रूपया एकबार कन्याशालाको दे दिये और भी हजारों रूपयोंका दान आप लोगोंने किया, जो मुझे मालूम नहीं। उनके यहाँ आनन्दसे भोजन किया। आमकी टोकनीमेंसे बीस आम छात्रोंको दे दिये। शेष लेकर सागर चला। शाहपुरकी स्टेशन (गनेशगंज) पर पहँचा । वहाँपर गाड़ी पन्द्रह मिनट ठहर गई। बगलमें काम करनेवाले नौकरोंकी गाड़ी थी। हमारी गाड़ी ज्यों ही खड़ी हुई, त्यों ही सामनेकी गाड़ीसे निकलकर कितने ही छोटे-छोटे बच्चे भीख माँगने लगे। उन दिनों स्टेशनपर आम बहुत बिकते थे। कई लोग चूस चूसकर उनकी गोई बाहर फेंकते जाते थे। माँगनेवाले माँगनेसे नहीं चूकते थे। कई दयालु आदमी बालकोंको आम भी दे देते थे। मैंने भी टोकरीसे दो आम फेंक दिये, जिन्हें पानेके लिये लड़के आपसमें झगड़ने लगे। अन्तमें मैंने एक बड़े आदमीको बुलाया और कहा कि तुम आम बाँट दो, हम देते जाते हैं। कहनेका अभिप्राय यह है कि मैंने तीस ही आम बाँट दिये, क्योंकि मेरे चित्तमें तो मुसलमानकी चेष्टा भरी थी। साथ ही मैं भी इस प्रकृतिका हूँ कि जो मनमें आवे उसे करनेमें विलम्ब न करना। वहाँसे चलकर सागर आ गया। जब बाईजीसे प्रणाम किया तो उन्होंने कहा-'बेटा ! बनारससे लँगड़ा आम नहीं लाये?' मैंने कहा-'बाईजी ! लाया तो था, परन्तु शाहपुरमें बाँट आया।' उन्होंने कहा-'अच्छा किया। परन्तु एक बात मेरी सुनो; दान करना उत्तम है। परन्तु शक्तिको उल्लंघन कर दान करनेकी कोई प्रतिष्ठा नहीं। प्रथम तो सबसे उत्तम दान यह है कि हम अपने आपको दान करनेवाला न मानें । अनादिकालसे हमने अपनेको नहीं जाना केवल परक अपना मान यों ही अनन्तकाल बिता दिया और चतुर्गतिरूप संसार में कर्मानुकूल पर्याय पाकर अनेक संकट सहे। संकटसे मेरा तात्पर्य है कि असंख्यात विकल कषायोंके कर्ता हुए, क्योंकि कषायके विकल्प ही तो संकटके कारण हैं। जितने विकल्प कषायों के हैं उतने ही प्रकारकी आकुलता होती है और आकुलता है दुःखकी पर्याय है। कषाय वस्तु अन्य है और आकुलता वस्तु अन्य है। यद्यपि सामान्यरूपसे आकुलता कषायसे अतिरिक्त विभिन्न नहीं मालूम होती, तो र्भ सूक्ष्म विचारसे आकुलता और कषाय में कार्यकारणभाव प्रतीत होता है। अत यदि सत्य सुखकी इच्छा है तो यह कर्तृत्वबुद्धि छोड़ो कि मैं दाता हूँ। यह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy