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कुछ प्रकरण
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सेठजीसे कहा-'चलो शुद्ध करनेकी झंझट मिटी। सेठजी हँस गये और वह भंगी भी 'जय महाराज' कहता हुआ चला गया। जब वहाँसे चलकर सागर आये और बाईजीको सेठजी ने सब व्यवस्था सुनाई तब वह हंसकर बोली-'इसकी ऐसी ही प्रवृत्ति है, जाने दो।' इसके बाद कुछ देर तक मेरी ही चर्चा चलती रही। इसी बीचमें बाईजीने सेठजीसे कहा कि 'यह बिना दिये कुछ लेता भी नहीं।'
एक बार सिमरामें जब यह मेरे यहाँ आया, मैं मन्दिर गई और इससे कह गई कि देखो जेठका मास है। यदि प्यास लगे तो कटोरदान में मीठा रक्खा है, खा लेना। इसे प्यास लगी। इसने बाजारसे एक आनाकी शक्कर मँगाई और शर्बत बनाकर पीने लगा। इतने में मैं आई। मैंने कहा-'कटोरदानसे मीठा नहीं लिया? यह चुप रह गया।
एक बार मैं बनारससे सागर आ रहा था, अषाढ़का माह था। पचास लंगड़ा आमों की एक टोकनी साथमें थी। मुगलसरायसे डाकगाड़ीमें बैठ गया। जिस डिब्बामें बैठा था, उसीमें कटनी जानेवाला एक मुसलमान भी बैठ गया। उसके पास एक आम की टोकनी थी। जब गाड़ी चली तब उसने टोकनीमेंसे एक आम निकाला और चाकूसे तराशकर खाने की चेष्टा की। इतनेमें बम्बई जानेवाले चार मुसलमान और आ गये। उसने सबको विभाग कर आम खाये। इस तरह मिर्जापुर तक दस आम खाये होंगे। मिर्जापुरमें इलाहाबाद जानेवाले पाँच-छह मुसलमान उस डिब्बा में और आ गये। फिर क्या था ? आमों का तराशना और खाना चलता रहा। इस तरह छोंकी तक पच्चीस आम पूर्ण हो गये। इलाहाबाद जानेवाले मुसलमान तो चले गये, पर वहाँसे पाँच मुसलमान और भी आ गये। उनका भी इसी तरह कार्य चलता रहा। कहने का तात्पर्य यह है कि कटनी तक वह टोकनी पूर्ण हो गई। मैं यह सब देखकर बहुत ही विस्मित हुआ। मैं एकदम विचारमें डूब गया कि देखो इन लोगोंमें परस्पर कितना स्नेह है?
अच्छा यह कथा तो यहीं रही है। मैं कटनी उतर गया। यहाँ पर सिंघई कन्हैयालालजी बड़े धर्मशील थे। कोई भी त्यागी या पण्डित आवे तो आपके घर भोजन किये बिना नहीं जाता। आपके सभी भाई व्यापारकुशल ही नहीं, दानशूर भी थे। एक भाई ‘लालजी' नामसे प्रसिद्ध थे। बीमारीके समय पच्चीस हजार रूपया संस्कृत विद्यालयको दे गये। पन्द्रह हजार रूपया एक
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