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________________ शिखरजीकी यात्रा और बाईजीका व्रतग्रहण नहीं किया । बहुतसे कार्य प्रारम्भ कर दिये । परन्तु उपयोग स्थिर न किया । यदि एक कामका आरम्भ करता तो बहुत ही यश पाता । परन्तु जो भवितव्य होता है वह दुर्निवार है। तूने सप्तमी प्रतिमा ले ली, यह भी मेरी अनुमतिके बिना ले ली, केवल ब्रहमचर्य पालनेसे प्रतिमा नहीं हो जाती, १२ व्रतोंका निरतिचार पालन भी साथमें करना चाहिए, तुम्हारी शक्तिको मैं जानती हूँ, परन्तु अब क्या ? जो किया सो अच्छा किया, अब हम तो तीन मास में चले जावेंगे, तुम आनन्दसे व्रत पालना, भोजनका लालच न करना, वेगसे आकर त्याग न करना, चरणानुयोगकी अवहेलना न करना तथा आयके अनुकूल व्यय करना। अपना द्रव्य त्यागकर परकी आशा न करना ।, 'जो न काहुका तो दीन कोटि हजार ।' दूसरेसे लेकर दान करनेकी पद्धति अच्छी नहीं। सबसे प्रेम रखना, जो तुम्हारा दुश्मन भी हो उसे मित्र समझना, निरन्तर स्वाध्याय करना, आलस्य न करना, यथासमय सामायिकादि करना, गल्पवाद के रसिक न बनना, द्रव्यका सदुपयोग इसीमें है कि यद्वा तद्वा व्यय नहीं करना, हमारे साथ जैसा क्रोध करते थे वैसा अन्यके साथ न करना, सबका विश्वास न करना, शास्त्रोंकी विनय करना, चाहे लिखित पुस्तक हो, चाहे मुद्रित उच्च स्थानपर रखकर पढ़ना, जो गजट आवें उन्हें रद्दीमें न डालना, यदि उनकी रक्षा न कर सको तो न मांगना, हाथकी पुस्तकोंको सुरक्षित रखना और जो नवीन पुस्तक अपूर्व मुद्रित हो उसे लिखवाकर सरस्वतीभवन में रखना । Jain Education International 295 1 I यह पञ्चमकाल है। कुछ द्रव्य भी निजका रखना । निजका त्याग कर परकी आशा रखना महती लज्जा की बात है । अपना दे देना और परसे माँगनेकी अभिलाषा करना घोर निन्द्या कार्य है। योग्य पात्रको दान देना । विवेकशून्य दानकी कोई महिमा नहीं । लोकप्रतिष्ठाके लिये धार्मिककार्य करना ज्ञानी जनोंका कार्य नहीं । ज्ञानीजन जो कार्य करते हैं वह अपने परिणामोंकी जातिको देखकर करते हैं । शास्त्रमें यद्यपि मुनि श्रावक धर्मका पूर्ण विवेचन है तथापि जो शक्ति अपनी हो उसीके अनुसार त्याग करना । व्याख्यान सुनकर या शास्त्र पढ़कर आवेगवश शक्तिके बाहर त्याग न कर बैठना । गल्पवादमें समय न खोना । प्रकरणके अनुकूल शास्त्रकी व्याख्या करना । 'कहींकी ईट कहींका रोड़ा भानुमतीने कुनबा जोर' की कहावत चरितार्थ न करना । श्रोताओंकी योग्यता देखकर शास्त्र बाचना । समयकी अवहेलना न करना । निश्चयको पुष्ट कर व्यवहारका उच्छेद न करना, क्योंकि यह दोनों परस्पर सापेक्ष हैं । I For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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