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मेरी जीवनगाथा
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हलकूलालजी है। उनके चाचा वृद्ध हैं, जिनका स्वभाव प्राचीन पद्धतिका है। विद्याकी ओर उनका बिल्कुल भी लक्ष्य नहीं। मैंने बहुत समझाया कि इस ओर भी ध्यान देना चाहिये, परन्तु उन्होंने टाल दिया । यहाँ पर एक लोकमणि दाऊ हैं। उनके साथ मेरा घनिष्ठ सम्बन्ध था। उनसे मैंने कहा कि ऐसा उपाय करना चाहिये कि जिससे यहाँ पर एक पाठशाला हो जावे, क्योंकि यह अवसर अनुकूल है। इस समय श्रीजिनेन्द्र भगवान्के पञ्चकल्याणक होनेसे सब जनताके परिणाम निर्मल हैं। निर्मलताका उपयोग अवश्य ही करना चाहिये।' दाऊने हमारी बातका समर्थन किया।
देवाधिदेव श्रीजिनेन्द्रदेवका पाण्डुकशिलापर अभिषेक था। पाण्डुकशिला एक ऊँची पहाड़ीपर बनाई गई थी, जिसपर कल्पित ऐरावत हाथीके साथ चढ़ते हुए हजारों नर-नारीयोंकी भीड़ बड़ी ही भली मालूम होती थी। भगवान्के अभिषेकका दृश्य देखकर साक्षात् सुमेरु पर्वतका आभास हो रहा था। जब अभिषेकके बाद भगवान्का यथोचित शृंगारादि किया जा चुका, तब मैंने जनतासे अपील की कि-'इस समय आप लोगोंके परिणाम अत्यन्त कोमल हैं, अतः जिनका अभिषेक किया है, उनके उपदेशोंका विचार करनेके लिये यहाँ एक विद्याका आयतन स्थापित होना चाहिये। सब लोगोंने 'हाँ हाँ ठीक है, ठीक है, जरूर होना चाहिये, आदि शब्द कहकर हमारी अपील स्वीकार की, परन्तु चन्दा लिखानेका श्रीगणेश नहीं हुआ। सब लोग यथास्थान चले गये। इसके बाद राज्यगद्दी, दीक्षाकल्याणक, केवलकल्याणक और निर्वाणकल्याणकके उत्सव क्रमसे सानन्द सम्पन्न हुए। मुझे देखकर यह अन्तरंगमें महती व्यथा हुई कि लोग बाह्य कार्यों में तो कितनी उदारताके साथ व्यय करते हैं, परन्तु सम्यग्ज्ञानके प्रचारमें पैसाका नाम आते ही इधर उधर देखने लगते हैं। जिस प्रकार जिनेन्द्रदेवकी मुद्राकी प्रतिष्ठामें धर्म होता है, उसी प्रकार अज्ञानी जनताके हृदयसे अज्ञान-तिमिरको दूरकर उनमें सर्वज्ञ वीतराग देवके पवित्र शासनका प्रसार करना भी तो धर्म है। पर लोगोंकी दृष्टि इस ओर हो तब न। मन्दिरोंमें टाइल और संगमरमर जड़वानेमें लोग सहस्रों व्यय कर देंगे पर सौ रुपयेके शास्त्र बुलाकर विराजमान करनेमें हिचकते हैं।
इस प्रान्तमें यह पद्धति है कि आगत जनता पञ्चकल्याणक करनेवालेको तिलक दान करती है तथा पगड़ी बाँधती है। यदि गजरथ करनेवाला यजमान है तो उसे सिंघई पदसे भूषित करते हैं और सब लोग सिंघईजी कहकर उनसे
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