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________________ हरी भरी खेती 285 हैं। ऐसा सौभाग्य शायद ही किसी संस्थाको प्राप्त होगा कि उससे निकले छात्र विद्वान उसीकी सेवा कर रहे हों। पं. मूलचन्द्रजी विलौवा जखैरा निवासीने इस पाठशालामें बहुत काम किया। आपकी बदौलत पाठशालाको हजारों रुपये मिले। आप बहुत साहसी मनुष्य हैं। इस प्रकार यह विद्यालय इस प्रान्त की हरी-भरी खेती है, जिसे देखकर अन्य की तो नहीं कहता पर मेरा हृदय आनन्दसे आप्लुत हो जाता है। : सागर सागर ही है, अतः इसमें रत्न भी पैदा होते हैं। बालचन्द्रजी मलैया सागरके एक रत्न ही हैं। इन्होंने जबसे काम सँभाला तबसे सागरकी ही नहीं, समस्त बुन्देलखण्ड प्रान्तके जैन समाजकी प्रतिष्ठा बढ़ा दी। आप जितने कुशल व्यापारी हैं उतने धार्मिक भी हैं। आपने ग्यारह हजार रुपया सागर विद्यालयको दिये, चालीस हजार रुपया जैन हाईस्कूलकी बिल्डिंग के लिये दिये, बीस हजार रुपया जैन गुरुकुल मलहराको दिये, पच्चीस हजार रुपया सागरमें प्रसूतिगृह बनानेके लिये दिये और इसके अतिरिक्त प्रतिवर्ष अनेक छात्रोंको छात्रवृत्ति देते रहते हैं। अध्ययनके प्रेमी हैं। आपने अपने हीरा आइल मिल्स लाइब्रेरी में कई हजार पुस्तकोंका संग्रह किया है। आपकी इस सर्वांगीण उन्नतिमें कारण आपके बड़े भाई श्रीशिवप्रसादजी मलैया हैं, जो बड़े ही शान्त विचारक और गम्भीर प्रकृतिके मानव हैं। आप इतने प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं कि एकान्त स्थानमें बैठे-बैठे अपने विशाल कार्य-भारका चुपचाप सफल सञ्चालन करते रहते हैं। विद्यालयकी सुव्यवस्था और समाजके लोगोंकी आभ्यन्तर अभिरुचिके कारण मेरा मुख्य स्थान सागर ही हो गया और मेरी आयुका बहुभाग सागरमें ही बीता। शाहपुरमें विद्यालय शाहपुरमें पञ्चकल्याणक थे। प्रतिष्ठाचार्य श्रीमान् पं. मोतीलालजी वर्णी थे। यह नगर गनेशगंज स्टेशनसे डेढ़ मील दूर है। यहाँ पर पचास घर जैनियोंके हैं। प्रायः सभी सम्पन्न, चतुर और सदाचारी हैं। इस गाँवमें कोई दस्सा नहीं। यहाँ पर श्रीहजारीलाल सर्राफ व्यापारमें बहुत कुशल हैं। यदि यह किसी व्यापारी क्षेत्रमें होता तो अल्प ही समयमें सम्पत्तिशाली हो जाता, परन्तु साथ ही एक ऐसी बात भी है जिसमें समाजके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं हो पाता। जिनके पञ्चकल्याणक थे वह सज्जन व्यक्ति हैं। उनका नाम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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