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________________ हरी भरी खेती -283 प्रतिज्ञा करो कि अष्टमी, चतुर्दशी, अष्टाहिका पर्व, सोलहकारण पर्व तथा दशलक्षण पर्वमें ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करेंगी। विशेष कुछ नहीं कहना चाहती।' उसका व्याख्यान सुन कर सब समाज चकित रह गई। पास ही बैठे बाबा भागीरथजीने दीपचन्द्रजी वर्णीसे कहा कि यह अबला नहीं, सबला है। हरी भरी खेती सागरकी जनता अभी तक अपने आचार-विचारको पूर्ववत् सुरक्षित रक्खे हुए है। यद्यपि यहाँपर अन्य बड़े-बड़े शहरों के अनुपात से धनिक वर्गकी न्यूनता है, तो भी लोगों के हृदयमें धार्मिक कार्यों के प्रति उत्साह रहता है। पाठशालाके प्रारम्भसे लेकर आज तक जब हम उसकी उन्नति और क्रमिक विकासपर दृष्टि डालते हैं तब हमारे हृदयमें सागरवासियों के प्रति अनायास आस्था उत्पन्न हो जाती है। सिंघई कुन्दनलालजी, चौ. हुकुमचन्द्रजी, मानिक चौकवाले, मलैया शिवप्रसाद, शोभाराम, बालचन्द्रजी, सिं. राजारामजी, सिं. होतीलालजी, मोदी शिखरचन्द्रजीकी माँ, जौहरी खानदान आदि अनेक महाशय ऐसे हैं जो सदा पाठशालाका सिञ्चन करते रहते हैं। इस प्रकार यह सागरकी पाठशाला प्रारम्भसे लेकर अब तक सानन्द चल रही है। मेरा ख्याल है कि किसी भी संस्थाके संचालनके लिये पैसा उतना आवश्यक नहीं है जितना कि योग्य प्रामाणिक कार्यकताओंका मिलना। इस पाठशालाके चलानेका मुख्य कारण यहाँके योग्य और प्रामाणिक कार्यकर्ताओंका मिलना । इस पाठशालाके चलानेका मुख्य कारण यहाँके योग्य और प्रामाणिक कार्यकर्ताओंका मण्डल ही है। पाठशालामें निरन्तर उत्तमसे उत्तम विद्वान् रक्खे गए हैं। प्रारम्भमे श्रीमान् पण्डित सहदेव झा तथा छिंगे शास्त्री रखे गये। ये दोनों अपने विषयके बहुत ही योग्य विद्वान् थे। इनके बाद पं. वेणीमाधवजी व्याकरणाचार्य, पं. लोकनाथ शास्त्री, पं. छेदी प्रसादजी व्याकरणाचार्य नियुक्त हुए। जैन अध्यापकोंमें पं. मुन्नालालजी न्यायतीर्थ रांधेलीय रक्खे गये, जो अत्यन्त प्रतिभाशाली विद्वान् हैं। आप इस विद्यालयके सर्व प्रथम छात्र हैं। आपने यहाँ कई वर्ष तक अध्यापन कार्य किया। अब आप ही इस विद्यालयके मन्त्री हैं जो बड़े उत्साह और लगनके साथ काम करते हैं। आज कल आप स्वतन्त्र व्यवसाय करते हैं। आपके पहले श्रीपूर्णचन्द्र बजाज मन्त्री थे। आप प्रायः तीस वर्ष पाठशालाके मन्त्री रहे होंगे। आप बड़े गम्भीर और विचारक पुरुष हैं। साथ ही विद्या-प्रचारके बड़े इच्छुक हैं। आपने जब यहाँ यह पाठशाला न खुली थी तब एक छोटी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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