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________________ मेरी जीवनगाथा 280 कभी बाजारसे पैसा भँजाने पड़े हों। ___उन्हें औषधियोंका अच्छा ज्ञान था। मैं तो चालीस वर्ष उनके सहवासमें रहा, कभी उनका सिर तक नहीं दुखा। उनका भोजन एक पावसे अधिक न था। छाछका उपयोग अधिक करती थीं। जो भी वस्तु रखती थीं बहुत सँभाल कर रखती थीं। मुझे एक धोती कर्नाटकके छात्रने दी थी जो बहुत सुन्दर थी, परन्तु कुछ मोटी थी। मैंने बाईजीको दे दी। बाईजीने उस धोतीके द्वारा निरन्तर पूजन की और बीस वर्षके बाद जब उनका स्वर्गवास हो गया तो ज्यों-की-त्यों धोती उनके सन्दूकमें निकलीं। बाईजीके सहवाससे मैंने भी उदारताका गुण ग्रहण कर लिया, परन्तु उसकी रक्षा उनकी निर्लोभतासे हुई। . अबला नहीं सबला सागरसे, गौरझामरमें पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा थी, वहाँ गया। प्रतिष्ठामें पं. दीपचन्द्रजी वर्णी, बाबा भगीरथजी वर्णी तथा सागर के विद्वान् पं. दयाचन्द्र जी शास्त्री, पं. मुन्नालालजी आदि भी उपस्थित थे। मध्याह्नके बाद स्त्री सभा हुई। उसमें शीलव्रतके ऊपर भाषण हुए। रात्रिके समय एक युवती श्रीमन्दिरजीके दर्शनके लिए जा रही थी। मार्गमें एक सिपाहीने उसके उरस्थलमें मजाकसे एक कंकड़ मार दिया, फिर क्या था अबला सबला हो गई। उस युवती ने उसके शिरका साफा उतार दिया और लपककर तीन या चार थप्पड़ उसके गालमें इतने जोरसे मारे कि गाल लाल हो गया। लोगोंने पूछा कि 'बाईजी ! क्या बात है ?' वह बोली-'क्या बात है ? खेद है कि आप लोग प्रतिष्ठामें लाखों रुपये व्यय करते हो, परन्तु प्रबन्ध कुछ भी नहीं करते। हजारों मनुष्य निरावरण स्थान में पड़े हुए हैं पर किसीको चिन्ता नहीं। कोई किसीके साथ असद्व्यवहार करे, कोई पूछनेवाला नहीं। स्त्रियाँ बेचारी स्वभावसे ही लज्जाशील होती हैं। दुष्ट गुण्डे उन्हें देखकर हँसते हैं। जिस कूप पर वे नहाती हैं उसीपर मनुष्य नहाते हैं। कोई-कोई मनुष्य इतने दुष्ट होते हैं कि स्त्रियोंके आंगोपांग देखकर हँसी करते हैं। अभी की बात है-'मन्दिर जा रही थी, इस दुष्टने, जो पुलिसकी वर्दी पहने है और रक्षाका भार अपने शिरपर लिये है, मेरे उरस्थल में कंकड़ मार दी। इस पामरको लज्जा नहीं आती जो हम अबलाओं के ऊपर ऐसा अनाचार करता है। आप लोग इन्हें रक्षाके लिये रखते हैं, सहस्रों रुपये व्यय करते हैं, पर ये दुष्ट Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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