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व्यवस्थाप्रिय बाईजी
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गया। बाईजीने ललिताका सिर पकड़ा और भीतमें अपना हाथ लगाकर वेगसे पटका, परन्तु उसको रंजमात्र भी चोट न आई, क्योंकि उन्होंने हाथ लगा लिया था। मैं बाईजीकी इस विवेकपूर्ण सजाको देखकर हँस पड़ा।
__ बाईजीकी प्रकृति अत्यन्त सौम्य थी। उन्हें क्रोधकी मात्राका लेश भी न था। कैसा ही उद्दण्ड मनुष्य क्यों न आवे, उनके समक्ष नम्र ही हो जाता था। बाईजी जितनी शान्त थीं, उतनी ही उदार थीं। मैं जहाँ तक जानता हूँ उनकी प्रकृति अत्यन्त उच्च थी। एक बार मैंने बनारससे बाईजीको लिखा कि 'पीतलके बर्तनोंमें खटाईके पदार्थ विकृत हो जाते हैं।' आपने उत्तर लिखा कि चाँदी के बर्तन जितने आवश्यक समझो बनवा लो।'
___मैंने एक थाली एक सौ तीस रुपया भर, एक भगौनियाँ सौ रुपया भर, एक ग्लास बीस रुपया भर, दो चमची दस रुपया भर, एक कटोरदान अस्सी रुपया भर और एक लोटा अस्सी रुपया भर बनवा लिया। जब बनकर आये तब विचार किया कि यदि इन्हें उपयोगमें लाऊँगा तो इनकी सुन्दरता चली जावेगी, अतः पेटीमें बन्दकर रख दिये। जब दो मास बाद सागर आया और बाईजीने चाँदीके बर्तन देखे तब बोलीं-'भैया ! क्या इन्हें उपयोगमें नहीं लाये ?' मैंने कहा-'सुन्दरता न बिगड़ जाती ?' बाईजीने हँसते हुए कहा-'तो फिर किसलिये बनवाये थे?
___ बाईजीने उसी समय जलते हुए चूल्हेपर भगौनी चढ़ा दी, लोटा ग्लास पानीसे भरकर रख दिये और जब भोजनके लिए बैठा तब चाँदीका थाल भी सामने रख दिया। एक भी दिन ऐसा नहीं गया, जिस दिन उन बर्तनोंका उपयोग न किया हो।
बाईजीमें सबसे बड़ा गुण उदारताका था। जो चीज हमको भोजनमें देती थीं, वही नाई, धोबी, मेहतरानी आदिको देती थीं। उनसे यदि कोई कहता तो साफ उत्तर देती थीं कि महीनों बाद त्योहारके दिन ही तो इन्हें देती हूँ। खराब भोजन क्यों दूँ ? आखिर ये भी तो मनुष्य हैं ?
उनके पास जो भी आता था प्रसन्न होकर जाता था। क्रोध तो वह कभी करती ही न थीं। उनके प्रत्येक कार्य नियमानुकूल होते थे। एक बार भोजन करती थीं और एक बार पानी पीती थीं। आयसे कम व्यय करती थीं। आवश्यक वस्तुओंका संग्रह रखती थीं। दियासलाईके स्थानपर दियासलाई और लालटेनके स्थान पर लालटेन। कहनेका तात्पर्य यह है कि उन्हें कोई वस्तु खोजनेके लिये परेशान न होना पड़ता था। ऐसा समय नहीं आया कि
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