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________________ मेरी जीवनगाथा 278 दिनकी बात है-कटरा बाजारके मन्दिरमें पाठशालाके भोजनकी अपील हुई। एक दिनका भोजन खर्च दस रुपया था। बहुत लोगोंने एक-एक दिनका भोजन लिखाया। मैंने भी बाईजीके नामसे लिखा दिया। एक बोला कि 'बाईजी आप भी वर्णीजीके नामसे एक दिनका भोजन लिखा दो।' बाईजीने कहा-'अच्छा है, परन्तु आप लोग भी इसीके अनुकूल लिखा दो। लोग हँस पड़े। एक बार श्रीमान् सिंघई कुन्दनलालजीके सरस्वतीभवनकी प्रतिष्ठा थी। प्रतिष्ठाचार्यने केलेके स्तम्भ द्वारपर लगवाये, आमके पत्तोंके बन्धनमाल बँधवाये और घमलोंमें यवके अंकर निकलवाये। सिंघईजी बोले-'बाईजी ! बड़ी हिंसा होती है। धर्मके कार्यमें तो ऐसा नहीं होना चाहिये।' बाईजीने कहा'भैया ! प्रतिष्ठाचार्यसे पूछो।' सिंघईजीने कहा-'हम तो आपसे पूछते हैं।' बाईजीने कहा-'भैया ! मंगलकार्य है। उसमें मंगलके लिए यह सब किया जाता है। सिंघईजीको संतोष न हुआ। वे फिर भी बोले-'यदि यह सब न कराया जाता तो।' बाईजीने हँसकर उत्तर दिया-- 'भैया ! जब आसौजमें गल्ला बेचते हो और उसमें टुकनियों तिरूले आदि जीव निकलते हैं तब उनका क्या करते हो ? आरम्भके कार्यों में त्रसजीवोंकी रक्षा न हो और मांगलिक कार्य में एकेन्द्रिय जीवकी रक्षाकी बात करो। जब तुम्हारे आरम्भत्याग हो जावेगा तब तुम्हें मन्दिर बनानेका कोई उपदेश न करेगा। यह तुम्हारा दोष नहीं, स्वाध्याय न करनेका ही फल है। कहनेका तात्पर्य यह है कि वे समयपर उचित उत्तर देनेसे न चूकती थीं। व्यवस्थाप्रिय बाईजी बाईजीको अव्यवस्था जरा भी पसन्द न थी। वे अपना प्रत्येक कार्य व्यवस्थित रखती थीं। प्रत्येक वस्तु यथास्थान रखती थीं। आपकी सदा यह आज्ञा रहती थी कि लिखा हुआ कोई भी पत्र कूड़ामें न डाला जावे तथा जहाँ तक हो पुस्तकोंकी विनय की जावे। चाहे छपी पुस्तक हो, चाहे लिखी, विनय-पूर्वक ऊपर ही रखना चाहिये। एक दिनकी बात है। आप मन्दिरसे आ रही थीं। धर्मशालाके कूड़ागृहमें उन्हें एक कागज मिल गया। उसमें भक्तामरका श्लोक था। बाईजीने ललिताको बहुत डाँटा–'क्यों री ! इसे क्यों झाड़ा ?' वह उत्तर देने लगी-'वर्णीजीसे कहो कि वे क्यो ऐसा करते हैं ? बाईजीने मुझसे भी कहा कि 'मैंने सौ बार तुमसे कहा कि ऐसी भूल मत करो, चाहे गजट मँगाना बन्द कर दो। मैं चुप हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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