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________________ मेरी जीवनगाथा 274 परकी आशा करने लगो तो दत्त द्रव्यको कहाँ से चुकाओगे ? अथवा कल यह भाव हो जावे कि किस चक्रमें फँस गये ? इस संस्थासे अच्छा काम नहीं चलता, बड़ी अव्यवस्था है; अतः यहाँ दान देना ठीक नहीं था आदि नाना असत्कल्पनाएँ होने लगें तो उनसे केवल पापबन्ध ही होगा। इसलिये जिस समय दान देनेके भाव हों उस समय सम्यक् विचार कर बोलो और बोलनेके पहले दे दो, यही सर्वोत्तम मार्ग है। यदि बोलते समय न दे सको तो घर आकर भेज दो। कल के लिये उस रकमको घरमें न रक्खो। यह हमारा अभिप्राय है सो तुमसे कह दिया। अब आगेके लिये हमारे पास जो कुछ है वह सब तुम्हें देती हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, सो करो। भयसे मत करो। आजसे हमने इस द्रव्यसे ममता त्याग दी। हाँ, इतना करना कि यह ललिताबाई, जो कि तीस वर्षसे हमारे पास है, यदि अपने साथ न रहे, तो पाँच सौ रुपये का सोना और पन्द्रह सौ रुपये इसे दे देना तथा दो सौ रुपये सिमरा के मन्दिरको भेज देना। अब विशेष कुछ नहीं कहना चाहती।' बाईजीके इस सर्वस्व समर्पणसे मेरा हृदय गद्गद हो गया और मैं उठकर बाहर चला गया। बण्डाकी दो वार्ताएँ एक बार सागरमें प्लेग पड़ गया, हम लोग बण्डा चले गये, साथमें पाठशाला भी लेते गये। उस समय श्रीमान् पं. दीपचन्द्रजी वर्णी पाठशालाके सुपरिटेन्डेन्ट थे, अतः वे भी गये और उनकी माँ भी। दीपचन्द्रजीके साथ हमारा घनिष्ठ सम्बन्ध था। आपका प्रबन्ध सराहनीय था। एक दिनकी बात है-एक लकड़ी बेचनेवाली आई, उसकी लकड़ी चार आनेमें ठहराई, मेरे पास अठन्नी थी, मैंने उसे देते हुए कहा कि 'चार आना वापिस दे दे। उसने कहा-'मेरे पास पैसा नहीं है। मैंने सोचा-'कौन बाजार लेने जावे, अच्छा आठ आना ही ले जा। वह जाने लगी, उसके शरीरपर जो धोती थी वह बहुत फटी थी। मैंने उससे कहा-'ठहर जा। वह ठहर गई। मैं ऊपर गया। वहाँ बाईजीकी रोटी बनानेकी धोती सूख रही थी, मैं उसे लाया और वहीं पर चार सेर गेहूँ रक्खे थे, उन्हें भी लेता आया। नीचे आकर वह धोती और गेहूँ दोनों ही मैंने उस लकड़ीवालीको दे दिये। श्रीदीपचन्द्रजीने देख लिया। मैंने कहा-'आप बाईजीसे न कहना। वे हँस गये। इतनेमें बाईजी मन्दिरसे आ गईं और ऊपर गईं। चूल्हा सुलगा कर धोती बदलनेके लिये ज्यों ही छत पर गईं त्यों ही धोती नदारत देखी। हमसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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