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________________ पुण्य-परीक्षा 275 पूछने लगीं-'भैया ! धोती कहाँ गई ?' मैंने कहा-'बाईजी ! मुझे पता नहीं-यह कहते हुए मुझे कुछ हँसी आयी। अब बाईजीने दीपचन्द्रजीसे पूछा-'अच्छा तुम बताओ, कहाँ गई ?' उन्होंने कह दिया कि 'वर्णीजीने धोती और चार सेर गेहूँ लकड़ी बेचनेवालीको दे दिये।' बाईजी खुश होकर कहने लगी कि 'धोती देनेका रञ्ज नहीं, किन्तु दूसरी दे देते, गेहूँ भी दूसरे दे देते। अब जब धोती सूखेगी तब रोटी बनेगी, भोजनमें विलम्ब होगा। भूखा रहना पड़ेगा। मैंने कहा-'बाईजी ! आपका कहना बहुत उचित है परन्तु मैं पर्यायबुद्धि हूँ। जिस समय मेरे सामने जो उपस्थित हो जाता है वही कर बैठता हूँ। एक दिन श्रीसुनू शाहके यहाँ भोजनके लिए गया। उन्होंने बड़े स्नेहसे भोजन कराया। उनकी स्त्रीका मुझसे बड़ा स्नेह था । वह बोली-'दो रुपये लेते जाइये और खाने के लिए सागरसे फल मँगा लीजिये।' मैं भोजन कर चलने लगा। इतनेमें एक भिक्षुक रोटी माँगता हुआ सामने आ गया। मैंने उसे दो रुपये दे दिये । इतनेमें सुनू शाह आ गये। उन्होंने भिक्षुकको दो रुपया देते हुए देख लिया .......यह देखकर वे इतने प्रसन्न हुए कि मैं वहाँसे चलकर चार मास नैनागिरिमें रहा, जिसका पूरा व्यय उन्होंने दिया। पुण्य-परीक्षा एक दिनकी बात है सब लोग नैनागिरमें धर्मचर्चा कर रहे थे। मैनासुन्दरी आदिकी कथा भी प्रकरणमें आ गई। एक बोला-'वर्णीजीका पुण्य अच्छा है, वे जो चाहें हो सकता है। एक बोला-'इन गप्पोंमें क्या रक्खा है ? इनका पुण्य अच्छा है यह तो तब जानें जब इन्हें आज भोजनमें अंगूर मिल जावें।' नैनागिरमें अंगूर मिलना कितनी कठिन बात है ? मैंने कहा-'मैं तो पुण्यशाली नहीं परन्तु पुण्यात्मा जीवोंको सर्वत्र सब वस्तुएँ सुलभ रहती हैं।' वह बोला-'सामान्य बात छोड़िये, आपकी बात हो रही है। यदि आप पुण्यशाली हैं तो आपको भोजनमें अंगूर मिल जावें। यों तो जगत्में चाहे जिसको जो चाहे कह दो। मैं तो आपको पुण्यात्मा तभी मानूंगा जब आज आपको अभी अंगूर मिल जावेंगे। मैंने कहा-'यदि मेरे पल्ले पुण्य हैं तो कौन-सी बड़ी बात है ?' वह बोला-'बातोंमें क्या रक्खा है ?' मैंने कहा-'बात ही से तो यह कथा हो रही है।' एक बोला-'अच्छा, इसमें क्या रक्खा है। सब लोग भोजनके लिए चलो, पुण्यपरीक्षा फिर हो लेगी।' हँसते-हँसते सब लोग भोजनके लिये बैठे ही थे कि इतनेमें दिल्लीसे अयोध्याप्रसादजी दलाल सागर होते हुए नैनागिर आ पहुँचे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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