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________________ बाईजीका सर्वस्व समर्पण 273 रुपये।' बाईजी बोलीं-'हम तो फलके लिये देते थे और तुम डाकखानेमें जमा करते हो, इसका अर्थ हमारी समझमें नहीं आता। मैंने कहा-'मैंने बनारस विद्यालयके लिये आपके नामसे एक हजार रुपये दिये हैं, उन्हें अदा करना है।' बाईजीने कहा-'इस प्रकार कब तक अदा होंगे?' मैं चुप रह गया। वह कहती रहीं कि 'जिस दिन दिये उसी दिन देना उचित था। दानकी रकम है वह तो ऋण है। पाँच रुपया मासिक उसका ब्याज हुआ। तुम्हें दस रुपया मासिक ही तो देती हूँ। इनसे किस प्रकार अदा करोगे? जब तुम्हें हमारा भय था तब दान देनेकी क्या आवश्यकता थी? जो हुआ, सो हुआ, अभी जाओ और एक हजार रुपया आज ही भेज दो।' __मैं सब सुनता रहा; बाईजीने यह आदेश दिया कि 'दानकी रकमको पहले दो, पीछे नाम लिखाओ । दान देना उत्तम है, परन्तु देते समय परिणाममें उत्साह रहे। वह उत्साह ही कल्याणका बीज है। दानमें लोभका त्याग होना चाहिये। 'स्वपरानुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गे दानम्' अपना और परका अनुग्रह करनेके लिये जो धनका त्याग किया जाता है वही दान कहलाता है। देनेके समय हमारे यह भाव रहते हैं कि इससे परका उपकार हो अर्थात् जब हम व्रतीको दान देते हैं तब हमारे यह भाव होते हैं कि इसके द्वारा इनका शरीर स्थिर रहेगा और उस शरीरसे यह मोक्षमार्गका साधन करेंगे। यद्यपि मोक्षमार्ग आत्माके गुणोंके निर्मल विकाससे होता है तथापि शरीर उसमें निमित्त कारण है। जैसे वृद्ध मनुष्य अपने पैरोंसे चलता है परन्तु उसमें यष्टि सहकारी कारण होती है। अथवा जब नेत्र निर्बल हो जाते हैं तब चश्माके द्वारा मनुष्य देखता है। यद्यपि देखनेवाला नेत्र ही है तो भी चश्मा सहकारी कारण है। दान देने में परका यही उपकार हआ कि ज्ञानादिके निमित्त कारणोंमें स्थिरता ला सका। परन्तु परमार्थसे देनेवालेका महान् उपकार हुआ। वह इस प्रकार कि दान देनेके पहले लोभकषायकी तीव्रतासे इस जीवके परपदार्थके ग्रहण करनेका भाव था, परन्तु दान देते समय आत्मगुणघातक लोभका निरास हुआ। लोभके अभावमें आत्माके चारित्रगुणका विकास हुआ और चारित्रगुणका आंशिक विकास होनेसे मोक्षमार्गकी आंशिक वृद्धि हुई। अतः दान देनेके भाव जिस समय हों उसी समय उस द्रव्यको पृथक् कर देना उचित है। तत्काल न देनेसे महान् अनर्थकी सम्भावना है। कल्पना करो आज तो सातोदयसे तुम्हारे पास द्रव्य है। यदि कल असातोदय आ जावे और तुम स्वयं दरिद्री होकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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