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________________ 272 मेरी जीवनगाथा थे, पाटीपर पढ़ाते थे तथा लड़के जो पढ़ते थे उसे हृदयमें लिख लेते थे पुस्तककी पढ़ाई नहीं थी । सायंकालके समय जो कुछ पढ़ते थे उसे एक लड़का कण्ठस्थ पढ़ता था और शेष लड़के उसीको दोहराते थे । इस प्रकार अनायास छात्रोंकी योग्यता उत्तम हो जाती थी । परन्तु अब वह प्रथा बन्द हो गई है। अब तो केवल पैसेकी विद्या रह गई है । पहले छात्रोंको गुरुमें भक्ति रहती थी । गुरुके चरणोंमें मस्तक नवाकर छात्र गुरुका अभिवादन करते थे, पर आज बहुत हुआ तो मस्तकसे हाथ लगा कर गुरुको प्रणाम करनेकी पद्धति रह गई है। फल उसका यह है कि धीरेधीरे विनय गुणका लोप हो गया । प्राचीन पद्धतिके अभावमें भारतकी जो दुर्दशा हो रही है वह सबको विदित है । यहाँसे चल कर फिर सागर आगये और देखकर सन्तुष्ट हुए कि पाठशालाकी व्यवस्था ठीक चल रही है । यहाँ के कार्यकर्ता और समाजके लोगोंमें मैंने एक बात देखी कि वे अपना उत्तरदायित्व पूर्णरूपसे सँभालते हैं। बाईजीका सर्वस्व समर्पण एक बार मैं बनारस विद्यालयके लिये बाईजीके नामसे एक हजार रुपया लिखा आया, पर भयके कारण बाईजीसे कहा नहीं । बाईजी मुझे आठ दिनमें तीन रुपया फल खानेके लिये देतीं थीं, मैं फल न खाकर उन रुपयोंको पोस्ट आफिसमें जमा कराने लगा । एक दिन बाईजीने पूछा- भैया फल नहीं लाते ? मैंने कह दिया- 'आज कल बाजारमें अच्छे फल नहीं आते।' बाईजी ने कहा- 'अच्छा।' एक दिन बाईजी बड़े बाजार गई। जब लौटकर आ रहीं थीं तब मार्गमें फलवाले सफीकी दुकान मिल गई। बाईजीने सफीसे कहा- 'क्यों सफी ! भैयाको फल नहीं देते ?' सफीने कहा- 'वह दूरसे रास्ता काटकर निकल जाते हैं ।' बाईजीने दो रुपयाके फल लिए और धर्मशालामें आकर मुझसे कहा-'यह फल सफीने दिये हैं पर तुम कहते थे कि अच्छे फल नहीं आते, यह मिथ्या व्यवहार अच्छा नहीं।' इतनेमें ही वहाँ पड़ी हुई पोस्ट आफिसकी पुस्तकपर उनकी दृष्टि जा पड़ी। उन्होंने पूछा- 'यह कैसी पुस्तक है ?' मैं चुप रह गया । वहाँ डाकपीन खड़ा था। उसने कहा- 'यह डाकखानेमें रुपया जमा कराने की पुस्तक है।' बाईजीने कहा- 'कितने रुपये जमा हैं ?' वह बोला- 'पच्चीस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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