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मेरी जीवनगाथा
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एक मास बाद गाँवके पञ्चोंको एक दिन पक्का और एक दिन कच्चा भोजन कराओ तथा ग्यारह रुपया मन्दिरको दो। जिसके घोड़ाने मारा था उससे कहा गया कि तुमने अपना घोड़ा इतना बलिष्ट क्यों बनाया कि उसकी टापसे दूसरा घोड़ा मर गया, अतः तुम्हें दो मास तक मन्दिर बन्द किया जाता है; पश्चात् एक पक्की और एक कच्ची पंगत गाँवके पञ्चोंको दो, पन्द्रह रुपया मन्दिरको दो और जिसका घोड़ा मर गया है उसे एक साधारण घोड़ा ले दो।
ऐसे ही एक गाँवमें और गया। वहाँ एक जैन वैद्य रहता था जो बड़ा दयालु था। किसीसे कुछ नहीं लेता था। इसी गाँवमें एक सोनी वैद्य भी रहता था, जो कि जैनी वैद्यसे बहुत डाह रखता था। डाह रखनेका कारण यह था कि यह दवा करके रुपया लेता था और जैनी वैद्य कुछ भी नहीं लेता था, इसीलिए लोग अधिकांश जैनी वैद्यके पास ही जाते थे और इससे उस सोनी वैद्य की आजीविकामें अन्तर पड़ता था।
एक दिन जैनी वैद्यको घोड़ीके दूधकी आवश्यकता हुई। सोनी वैद्यके घोड़ी थी, अतः वह उसके पास जाकर बोला कि घोड़ी का दूध चाहिये। उसने कहा-हमारी घोड़ी है, खुशीसे ले जाइये । वह ले आया । दैवयोगसे पन्द्रह दिन बाद घोड़ी मर गई। फिर क्या था सोनी वैद्यने पञ्चोंसे कहा कि आपके जैनी वैद्यके साथ हमने तो अच्छा व्यवहार किया कि उन्हें घोड़ीके दूधकी आवश्यकता थी, मैंने ले जाने की अनुमति दे दी। पर ये न जाने क्या कर गये, जिससे हमारी घोड़ी उसी दिनसे बीमार हो गई और आज मर भी गई। पच्चीस रुपयाकी होगी, अतः इनसे रुपये दिलाये जावें या वैसी ही घोड़ी दिलाई जावे।
पञ्चोंने आनुपूर्वी फैसला कर दिया और कहा कि न जाने तुमने घोड़ीको क्या खिला दिया जिससे कि वह मर गई। चूंकि इसमें तुम्हारा अपराध सिद्ध है, अतः तुम्हारे ऊपर पच्चीस रुपया जुर्माना किया जाता है। यह रुपया सोनीको दिया जावे। तुम्हें तीन मास तक मन्दिर बन्द है। पश्चात तीर्थ वन्दना करके आओ और एक पक्की तथा एक कच्ची पंगत गाँवके पञ्चोंको दो।'
......इस प्रकार इस प्रान्तमें ऐसे अनेक निरपराध प्राणियोंको सताया जाता है। जिसका मूल कारण अविद्या ही है परन्तु इस ओर न तो कोई धनाढ्य ही हैं और न कोई विशेष विद्वान् ही, जो इस त्रुटिकी पूर्ति कर सकें। यदि कोई दयालु महानुभाव एक ऐसा विद्यालय इस प्रान्तमें खोलें, जिसमें
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