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________________ मेरी जीवनगाथा 266 बहुत कुछ वाद-विवादके बाद यही निश्चय हुआ कि परवारसभामें जो विधवाविवाहकी चर्चा हुई वह सर्वथा हमारे कुलके विरुद्ध है तथा धर्मशास्त्रके प्रतिकूल है। खेद इस बातका है कि हमारे माननीय तहसीलदार साहबने अपने भाषणमें इसकी चर्चा कर व्यर्थ ही समाजमें क्षोभ उत्पन्न कर दिया। हम लोगोंको अब भी विश्वास है कि तहसीलदार साहब अब तक जो हुआ सो हुआ, पर अब भविष्यमें इस विषयपर तटस्थ रहेंगे। यहाँसे चल कर हम लोग सागर चले आये। कुछ दिन बाद जबलपुरमें चवेनीके ऊपर परस्परमें मनोमालिन्य होनेसे दो पक्ष हो गये। एक पक्ष सारे पक्षके परस्पर महान् विरोधी हो गये। बहुत कुछ प्रयत्न हुआ, परन्तु आपसमें कलह शान्त न हुई। वंशीधरजी डेवडियासे मेरा घनिष्ठ सम्बन्ध था। उन्होंने कई भाइयोंको भेजा और साथ ही एक पत्र इस आशयका लिखा कि आप पत्रके देखते ही चले आइये। यहाँ आपसमें अत्यन्त कलह रहती है जो संभव है आपके प्रयत्नसे दूर हो जावे। मैं उसी दिन गाड़ीमें बैठकर जबलपुर पहुँच गया, रात्रिको सभा हुई, तीन घण्टा विवाद रहा, अन्तमें सब लोगोंने सर्वदाके लिये इस प्रथाको बन्द कर दिया और परस्परमें प्रेमभावसे मिल गये, कलहकी शान्ति हो गई और हमारे लिये सहजमें यश मिल गया। इस कलहाग्निके शान्त करनेका श्रेय श्रीसिंघई गरीबदासजी, वंशीधरजी डेवड़िया, श्री सिंघई मौजीलालजी नरसिंहपुरवाले तथा बल्लू, बड़कुरको ही मिलना चाहिये, क्योंकि उनके परिश्रम और सद्भावनासे ही वह शान्त हो सकी थी। पपौरा और अहारक्षेत्र यह वही पपौरा है जहाँ पर स्वर्गीय श्रीमोतीलालजी वर्णीने अथक परिश्रम कर एक वीर विद्यालय स्थापित किया था। इस विद्यालयमें स्थायी द्रव्यका अभाव था, फिर भी श्री वर्णी मोतीलालजी केवल अपने पुरुषार्थके द्वारा पाँच सौ रुपया मासिक व्यय जुटाकर इसकी आजन्म रक्षा करते रहे। इस विद्यालय की स्थापनामें श्रीमान् पण्डित नन्हेलालजी प्रतिष्ठाचार्य टीकमगढ़ और श्रीमान् स्वर्गीय दरयावलालजी कठरयाका पूर्ण सहयोग रहा। इस प्रान्तमें ऐसे विद्यालयकी महती आवश्यकता थी। श्री वर्णीजीने अपना सर्वस्व विद्यालयको दे दिया। आपका जो सरस्वतीभवन था वह भी आपने विद्यालयको प्रदान कर दिया। आप विद्यालयकी उन्नतिके लिये अहर्निश व्यस्त रहते थे। प्रान्तमें धनिक वर्ग भी बहुत हैं, परन्तु उनके द्वारा विद्यालयको यथेष्ट सहायता कभी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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