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________________ परवारसभामें विधवाविवाहका प्रस्ताव 265 परवारसभाके इस प्रकरणसे उपस्थित जनतामें किसीको आनन्द नहीं हुआ। सब खिन्नचित होकर घर गये । क्षेत्र उत्तम है। श्री शान्तिनाथ भगवान्की विशालकाय प्रतिमा है। एक मन्दिरमें बड़ी-बड़ी पद्मासन प्रतिमाएँ हैं। एक मन्दिर कुछ ऊँचाई देकर बनाया गया है। कुल तीन मन्दिर हैं। एक छोटी-सी धर्मशाला भी है। यदि कोई धर्म-साधन करे तो सब तरहकी सुविधा है। परवारसभा पूर्ण हो गई। सब आगन्तुक महाशय चले गये। सभापति साहब अन्तमें गये। हमसे आपका जो स्नेह पहले था वही रहा, परन्तु परस्परमें सम्भाषणके समय वह बात न रही जो पहले थी। संसारमें मनुष्यके जो कषाय उत्पन्न हो जाती है उसके पूर्ण किये बिना उसे चैन नहीं पड़ता। हमको यह कषाय हो गई कि देखो, ये लोग आगम-विरुद्ध उपदेश देकर एक जातिको पतित करनेकी चेष्टा करते हैं, अतः पुरुषार्थ कर इसे रोकना चाहिये और विधवाविवाहके पोषकोंको यह कषाय हो गई कि जब मनुष्यको अपनी इच्छानुसार अनेक विवाह करने पर रुकावट नहीं तो विधवाको दूसरा विवाह करने पर क्यों रोक लगाई जावे ? आखिर उसे भी अधिकार है। अस्तु, जहाँ पर दोनों पक्षके मनुष्य परस्पर मिलते हैं वहाँ साधारण लोगोंको शास्त्रार्थ देखनेका अवसर मिल जाता है। दुःख केवल इस बातका है कि लोग इस विषयमें सिद्धान्त-वाक्यकी अवहेलना कर देते हैं। सिद्धान्तमें तो कन्यासंवरणको ही विवाहका लक्षण लिखा है। वहाँसे चलकर हम लोग सागर आगये। यहाँपर ब्रह्मचारजीका विधवाविवाह पोषक व्याख्यान एक बंगाली वकीलके सभापतित्व में हुआ। हम लोग भी उसमें गये, परन्तु सभापतिने बोलनेका अवसर न दिया। ब्रह्मचारीजीने एक विवाह भी कराया। कहाँ तक कहें ? सागरमें जो चकराघाट है वहीं पर यह कृत्य कराया गया। इसके बाद सागरमें एक सभा हुई, जिसमें नाना प्रकारके विवाद होनेके अनन्तर यह तय हुआ कि जो विधवाविवाहमें भाग ले उसके साथ सम्पर्क न रखा जावे। कहनेका तात्पर्य है कि अब प्रतिदिन शिथिलाचारकी पुष्टि होगी, लोग आगमविरुद्ध तर्कोंसे ही अपना पक्ष पुष्ट करेंगे। जो श्रद्धालु हैं उनकी यही दृष्टि है कि आगमानुकूल तर्क ही प्रमाणभूत है और जो तर्कको ही मुख्य मानते हैं उनका यह कहना है कि जो वाक्य (आगम) तर्कके अनुकूल है वही प्रमाण है। अस्तु, यहाँसे हम जबलपुर गये। वहाँ श्रीहनुमानताल पर सभा हुई। उसमें भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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