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________________ परवारसभामें विधवाविवाहका प्रस्ताव 261 परवारसभामें विधवाविवाहका प्रस्ताव अबतक सागर पाठशालाकी व्यवस्था अच्छी हो गई थी। छात्रगण मनोयोगपूर्वक अध्ययन करने लगे थे। आज जो पण्डित जीवन्धरजी न्यायतीर्थ इन्दौर में रहते हैं उन्होंने इसी विद्यालयमें मध्यमा परीक्षा तक अध्ययन किया था। पं. पन्नालालजी काव्यतीर्थ जो कि आजकल हिन्दू विश्वविद्यालय बनारसमें जैनधर्मके प्रोफेसर हैं, इसी विद्यालयके विद्यार्थी हैं। पं. दयाचन्द्रजी शास्त्री, पं. माणिकचन्द्रजी और पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य ये तीनों विद्वान् इसी पाठशालाके प्रमुख छात्र थे और आजकल इसी पाठशालामें अध्यापन कर रहे हैं। श्री पं. कमलकुमारजी व्याकरणतीर्थ, जो कि सेठ साहब के विद्यालयमें व्याकरणाध्यापक हैं, इसी पाठशालाके प्रमुख छात्र रह चुके हैं। श्री पं. पन्नालालजी, जो कि अकलतराके प्रसिद्ध व्यापारी और लखपति हैं, इसी पाठशालाके छात्र हैं। कहाँ तक लिखें ? बहुत से उत्तमोत्तम विद्वान् इस विद्यालयसे निकलकर जैनधर्मकी सेवा कर रहे हैं। __ यहाँ चार मास रहकर मैं फिर काशी चला गया, क्योंकि मेरा जो विद्याध्ययनका लक्ष्य था वह छुट चुका था और उसका मूल कारण इतस्ततः भ्रमण ही था। आठ मास बनारस रहा, इतनेमें बीना (बारहा) का मेला आ गया। वहीं पर परवारसभाका अधिवेशन था। अधिवेशनके सभापति बाबू पंचमलालजी तहसीलदार थे और स्वागताध्यक्ष श्री सिंघई हजारीलालजी महाराजपुरवाले थे। मेरे पास महाराजपुरसे तार आया कि आप मेलामें अवश्य आइये । यहाँ पर जो परवारसभा होनेवाली है उसमें विधवा-विवाह का प्रस्ताव होगा, उसके पोषक बड़े-बड़े महानुभाव आवेंगे, ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी भी आवेंगे, अतः ऐसे अवसर पर आपका आना परमावश्यक है......अन्तमें लाचार होकर मुझे जानेका निश्चय करना पड़ा। जब मैं बनारससे सागर पहुंचा तब पाठशालामें श्रीयुक्त ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी उपस्थित थे। मैं पाठशाला गया। उन्होंने इच्छाकार की। मैंने कहा-ब्रह्मचारीजी ! मैं इच्छाकार नहीं करना चाहता, क्योंकि आप ऐसे महापुरुष होकर भी विधवाविवाहके पोषक हो गये। मुझे खेद है कि आपने यह कार्य हाथमें लेकर जैन समाजको अधःपतनकी ओर ले जानेका प्रयास किया है। आप जैसे मर्मज्ञको यह उचित न था। आप बोले-'शास्त्रार्थ कर लो।' मैंने कहा-'मैं तो शास्त्रार्थ करना उचित नहीं समझता। शास्त्रार्थमें यह होगा कि कुछ तो आपके पक्षमें हो जावेंगे और कुछ मेरे पक्षमें । अभी आपके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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