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________________ मेरी जीवनगाथा 260 चले गये और श्रीमान् व्याख्यानवाचस्पति पं. देवकीनन्दनजी साहब कारंजा चले गये। शास्त्रिपरिषद्का भी अधिवेशन हुआ पर, कुछ शास्त्री लोगोंकी कृपासे आधा यहाँ हुआ आधा दिल्लीको गया । श्रीमान् पंडित तुलसीरामजी वाणीभूषण, पंडित वंशीधरजी तथा पंडित देवकीनन्दनजीके उद्योगसे बुन्देलखण्ड प्रान्तमें एक शिक्षामन्दिरकी स्थापना हुई। श्रीमान् सेठ मथुरादासजी टडैयाने, जिनके यहाँ गजरथ था, कहा-'चिन्ता मत करो, सब कार्य निर्विघ्न होगा। श्रीअभिनन्दन स्वामीका यह अचिन्त्य प्रताप है कि एक ही बार उनके दर्शन करनेसे सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं, अतः आप लोग एक बार क्षेत्रपालमें स्थित श्रीअभिनन्दननाथ स्वामीकी मूर्तिका स्मरण करो, परन्तु यह भाव निष्कपट हो। तिरस्कारकी भावना कार्यकी बाधक है। आज कल हम जिस धर्म-कार्यकी नींव डालते हैं उसमें यह अभिप्राय रहता है कि अमुकके धर्मकार्यसे हमारा धर्मकार्य उत्तम है। अस्तु, इन कथाओंको छोड़िये और शिक्षामन्दिरकी उन्नतिका यत्न कीजिये।' इस कार्यमें श्रीयुत्त सिंघई कुँवरसेनजी सिवनी, सिंघई पन्नालालजी अमरावती, सिंघई फतहचन्द्रजी नागपुर और श्री सर्राफ मूलचन्द्रजी बरुआसागर आदिका मुख्य प्रयत्न था। चूँकि जबलपुर बुन्देलखण्ड प्रान्तका एक सम्पन्न नगर है, अतः वहीं शिक्षा मन्दिर के लिए स्थान चुना गया। यहाँ एक कमेटीमें यह निश्चित हुआ कि शिक्षामन्दिरके प्रचारके लिए एक डेपुटेशन मध्यप्रान्तमें जाना चाहिये और डेपुटेशनका प्रथम स्थान अमरावती होना चाहिये । अन्य अनेक गणमान्य व्यक्ति अमरावती पहुँचे। श्रीयुत सिं. पन्नालालजीने सबका अच्छा स्वागत किया। वहाँसे नागपुर, वर्धा, आरवी, रायपुर, डोंगरगढ़, अकलतरा आदि कई स्थानोंपर गये। अच्छी सफलता मिली, प्रायः बीस हजार रुपये हो गये। जबलपुरमें शिक्षामन्दिर खुल गया। श्रीमान् पं. वंशीधरजी सिद्धान्तवाचस्पति मुख्याध्यापकके स्थानपर और श्री पं. गोविन्दरायजी काव्यतीर्थ सहायक अध्यापकके स्थानपर नियुक्त हुए। छात्रसंख्या भी अच्छी हो गई और काम यथावत् चलने लगा। ___एक लाख रुपया स्थायी करनेका संकल्प था और यदि लोग चार मास भ्रमण करते तो होना अशक्य नहीं था। परन्तु जबलपुरवालोंने ऐसा टपाया कि चन्दा एकदम बन्द हो गया और दो तीन वर्षके बाद शिक्षामन्दिरकी इतिश्री हो गई। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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