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जबलपुरमें शिक्षा-मन्दिर
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हाथसे ही पानी भरती हैं। किसी अन्य जातिका भोजन हम लोग नहीं करते। हमारे यहाँ बाजारकी मिठाई खानेका रिवाज नहीं है। अष्टमी, चतुर्दशीको प्रायः लोग एकाशन करते हैं। वर्षा ऋतुके आते ही बैल और बैलगाड़ियोंका चलना छोड़ देते हैं। आधे कुँवारसे पुनः काममें लेते हैं। मन्दिरमें जब शास्त्र बाँचते हैं तब शुद्ध वस्त्रोंका उपयोग करते हैं। बाजारके कपड़ोंको पहिनकर शास्त्रका स्पर्श नहीं करते। हमारे प्रान्तमें प्रायः जलविहार करनेका बहुत रिवाज है। तीर्थयात्राके बाद दो सौ या चार सौ आदमियोंकी पंगत प्रायः सभी लोग करते हैं .....यह सब ऊपरी क्रिया होते हुए भी हम लोग विद्या से शून्य है। इस प्रान्तमें श्री देवीदासजी आदि अच्छे-अच्छे विद्वान् हो गये हैं। वर्तमानमें पं. बिहारीलालजी सतना तथा पं. रामलालजी खिमलासा आदि अब भी हैं, फिर भी विरलता है। आशा है हमारी प्रार्थना पर आपका चित्त दयार्द्र हुआ होगा।'...... इतना कह कर सबके नेत्र अश्रुओंसे प्लावित हो गये । श्रीमान् पण्डितजी भी गद्गद् स्वरसे कहने लगे कि समय पाकर हम अवश्य इस प्रान्त में आवेंगे। इस प्रकार पण्डितजी साहबको बिदाकर सब लोग अपने-अपने घर गये।....यह कथा वहाँ अब भी खूब प्रसिद्ध है।
जबलपुरमें शिक्षा-मन्दिर ललितपुरमें पञ्चकल्याणक महोत्सव था, तीन गजरथ थे, शास्त्रिपरिषद्का उत्सव था, परवारसभाका अधिवेशन था, साथ ही मोरेना विद्यालयका भी उत्सव था। इस महोत्सवमें एक लाख जैनी थे। परवारसभाके सभापति सिंघई पन्नालालजी अमरावतीवाले थे। इसी अवसरपर गोलापूर्व सभाका भी अधिवेशन था। उसके सभापति सिंघई कुन्दनलालजी थे। गोलालारे सभाका भी आयोजन था। सभामें व्याख्याताओंकी लम्बी-लम्बी वक्तृताएँ हुई। फल क्या हुआ, सो आज कलकी सभाओंसे अनुमानकर लेना चाहिए। मोरेना विद्यालयका उत्सव हुआ, परन्तु पारस्परिक मनोमालिन्यके कारण विशेष लाभ नहीं हुआ।
स्वर्गीय पूज्य गोपालदासजीके प्रभावसे ही आज सिद्धान्तका प्रचार जैनियोंमें हो रहा है। आपके स्मरणसे ही हमें शान्ति आती है। आपने मोरेनामें एक उच्चकोटिके सिद्धान्त-विद्यालयकी स्थापना की थी, जहाँ वंशीधरजी, पं. माणिकचन्द्रजी, पं. देवकीनन्दनजी आदि बड़े उत्साहके साथ काम करते थे। किन्तु उनके पश्चात् पक्षपातके कारण सिद्धान्तमहोदधि पं. वंशीधरजी साहब वहाँसे जबलपुर चले गये, श्रीमान् न्यायाचार्य पं. माणिकचन्द्रजी साहब सहारनपुर
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