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________________ मेरी जीवनगाथा 258 करना ?' पण्डितजी बोले-'आगमकी आज्ञा तो ऐसी नहीं, परन्तु हममें लोभकी मात्रा न बढ़ जावे, इससे त्याग कर दिया। सेठजीने कहा-'आपका यह त्याग हमारी समझमें नहीं आता। अथवा आपकी जो इच्छा हो, सो करें। हमारी इच्छा अब पञ्चकल्याणक करनेकी नहीं। जब कि आप जैसे महान् पुरुषका ही आदर करनेके पात्र नहीं तब इतना महान् पुण्य करनेके पात्र हो सकेंगे, इसमें सन्देह होता है। अन्तमें पण्डितजी निरुत्तर होकर बोले-'अच्छा सेठजी भोजन बनवाइये, हम सब लोग भोजन करेंगे। सेठजी बहुत प्रसन्न हुए और शीघ्र ही मुनीमसे बोले कि 'जाओ शीघ्र ही पपौरा सामान भेजनेका प्रबन्ध करो। महाराज ! चलिये भोजन करिये।' पण्डितजी मुसकराते हुए भोजनके लिये गये। साथमें सेठजी भी थे। बुन्देलखण्डका कच्चा-पक्का भोजन कर पण्डितजी बहुत प्रसन्न हुए। भोजनके पश्चात् पपौराके लिये प्रस्थान कर गये। कई मील तक मेलाकी भीड़ थी। उस समय पंपापुरकी शोभा स्वर्गखण्डके समान हो रही थी। लाखों जैनी आये थे। मेला सानन्द समाप्त हुआ और सब लोग अपने-अपने स्थान पर चले गये। श्रीयुत पं. भागचन्द्रजी साहब भी जानेके लिए प्रस्तुत हुए, तब सेठजीने कहा कि 'महाराज ! एक दिन और ठहर जाइये, मैं आगन्तुक महानुभावोंको बिदाकर आपको भेजूंगा।' पण्डितजी रह गये। रात्रिको मन्दिरमें सभा हुई। सेठजीने राज्यके सब कर्मचारियोंको निमन्त्रण दिया। पण्डितजीने धर्मके ऊपर व्याख्यान दिया। सब मण्डली प्रसन्न हुई। प्रातःकाल पण्डितजीके गमनका सुअवसर आया। सम्पूर्ण जैन मण्डलीने पुष्पमालाओंसे पण्डितजीका सत्कार किया। सेठजीने प्रतिष्ठाचार्यको जैसा सत्कार विहित था, वैसा किया। यद्यपि पण्डितजीने बहुत मना किया, परन्तु सेठजीने एक न सुनी और शास्त्रानुकूल उनका सत्कार किया। पण्डितजी भी अन्तरंगसे बहुत प्रसन्न हुए। अब समयका परिवर्तन हो गया। आज पण्डित चाहते हैं पर समाज देना नहीं चाहती; उन दिनों जो पण्डितोंका आदर था आज उसका शतांश भी नहीं। दो मीलतक सब लोग पण्डितजीको पहुँचानेके लिये गये और सबने विनम्र भावसे प्रार्थनाकी कि 'महाराज ! फिर भी इस प्रान्तमें आपका शुभागमन हो। हम लोग ऐसे प्रान्तमें रहते हैं कि जहाँ विद्याकी न्यूनता है। परन्तु महाराज ! हम लोग सरल बहुत हैं। आप जो शिक्षा देवेंगे उसका यथाशक्ति पालन करेंगे। महाराज ! हमारे देशकी औरतें हाथसे ही आटा पीसती हैं और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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