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________________ निस्पृह विद्वान् और उदार गृहस्थ 257 बोली मुझे कूपमें बैठा दो। लोगोंने बहुत मना किया, पर वह न मानी। अन्तमें बड़गैनी कुएँमें उतार दी गई। वह वहाँ जाकर भगवान् का स्मरण करने लगी-'भगवान् ! मेरी लाज रक्खो।' उसने इतने निर्मलभावसे स्तुति की कि दस मिनटके भीतर कुआँ भर गया और बड़गैनी ऊपर आ गई। चौबीस घण्टे पानी ऊपर रहा, रस्सीकी आवश्यकता नहीं पड़ी। आनन्दसे मेला भरके प्राणियोंने पानीका उपयोग किया। धर्मकी अचिन्त्य महिमा है। पश्चात् मेला विघट गया.....यह दन्तकथा आज तक प्रसिद्ध है। निस्पृह विद्वान् और उदार गृहस्थ __ इसी पपौराकी बात है। यहाँ पर रामबगस सेठके पञ्चकल्याणक थे। उनके यहाँ श्री स्वर्गीय भागचन्द्रजी साहब प्रतिष्ठाचार्य थे। जब आप आये तब सेठजीके सुपुत्र गंगाधर सेठने पूछा कि 'महाराज ! आपके लिये कैसा भोजन बनवाया जावे, कच्चा या पक्का या कच्चा-पक्का ।' श्रीपण्डितजीने उत्तर दिया-'न कच्चा न पक्का न कच्चा-पक्का। तब गंगाधर सेठने कहा-'तो आपका भोजन कैसा होगा ?' पण्डितजी बोले-'सेठजी ! मेरे प्रतिज्ञा है कि जिसके यहाँ प्रतिष्ठा करनेके लिये जाऊँ उसके यहाँ भोजन न करूंगा।' सेठजीके पिता बहुत चतुर थे। उन्होंने मुनीमको आज्ञा दी कि 'जितने स्थानोंपर गजरथकी पत्रिका गई उतने स्थानों पर निषेधके पत्र भेजो और उनमें लिख दो कि अब सेठजी के यहाँ गजरथ नहीं है। जितना घास हो ग्राम भरकी गायोंको डाल दो, लकड़ी, घड़ा आदि गरीब मनुष्योंको वितरण कर दो, घी आदि खाद्य सामग्रीको साधारण रूपसे वितरण कर दो तथा राज्यमें इत्तिला कर दो कि सेठजीके यहाँ गजरथ नहीं है, अतः सरकार प्रबन्ध आदिका कोई कष्ट न उठावे। श्रीपण्डितजी महाराजको सवारीका प्रबन्ध कर दो, जिससे वे श्री पंपापुर (पपौरा) के जिनालयोंके दर्शन कर आवें। जब वहाँसे वापिस आ तब ललितपुर तक सवारीका योग्य प्रबन्ध कर देना और ललितपुर तक आप स्वयं पहुँचा आना।' पण्डितजी बोले-'सेठजी यह क्यों ?' सेठजीने कहा-'आप हमारा अन्न भक्षण करनेमें समर्थ नहीं अर्थात् आप उसे अयोग्य समझते हैं। जब यह बात है तब हम अन्य समाजको अयोग्य अन्न खिला कर पातकी नहीं बनाना चाहते।' पण्डितजी बोले-'सेठजी ! मेरे प्रतिज्ञा है, अतः मैं लाचार हूँ।' सेठजीने कहा-'महाराज ! हम तो अज्ञानी हैं और आप बहुज्ञानी हैं, पर क्या यह आगम कहता है कि जिसके यहाँ पञ्चकल्याणक हो उसके यहाँ भोजन न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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