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________________ परवारसभाके अधिवेशन 255 आगममें यहाँ तक लिखा है कि यदि प्रभुको छ: मास पर्यन्त अन्तरायके कारण चर्याकी विधि न मिली फिर भी उनके चित्तमें उद्वेग नहीं हुआ। ऐसे ही विशाल महानुभाव जगत्का कल्याण कर सकते हैं, अतः जिनके पास वर्तमानमें पुष्कल द्रव्य है, उन्हें जैनधर्मके विकासमें व्ययकर एकबार प्रभावनाका स्वरूप संसारको दिखा देना चाहिये। पर वास्तवमें बात यही है कि लिखनेवाले बहुत हैं और करनेवाले विरले हैं। जब कि लिखनेवालेको यह निश्चय हो गया कि इस प्रकार धर्मकी प्रभावना होती है तब स्वयं उसे उस रूप बन जाना चाहिये। पर देखा यह जाता है कि लेखक स्वयं वैसे बननेकी चेष्टा नहीं करते। केवल मोहके विकल्पोंमें जो कुछ मनमें आया वह लेखबद्ध कर देते हैं या वक्ता बनकर मनुष्यके बीच उसका उपदेश सुना देते हैं तथा लोगों द्वारा 'धन्य हो, धन्य हो' यह कहला कर अपनेको कृत-कृत समझ लेते हैं। क्या इसे वास्तविक प्रभावना कहा जाय ? वास्तविक प्रभावना यही है कि आत्मामें सम्यग्दर्शनादि गुणोंका विकास किया जाय। इस प्रभावनाका प्रारम्भ सातिशय मिथ्यादृष्टिसे शुरू होता है और पूर्णता चतुर्दशगुणस्थानके चरम समयमें होती है। परवारसभाके अधिवेशन एक बार परवारसभाका उत्सव सागरमें हुआ। श्रीमन्त सेठ पूरनशाहजी सिवनीवाले सभापति थे। सभामें परस्पर बड़ा झगड़ा हुआ। झगड़ेकी जड़ चार सांकें थीं। श्रीमन्त सेठ मोहनलालजी खुरईकी सम्मति आठ सांकोंकी थी। जो प्राचीन प्रथा है उसे आप अन्य रूपमें परिवर्तित नहीं करना चाहते थे। मैंने लोगोंसे बहुत विनयके साथ कहा कि समय पाकर चार सांके क्या, दो ही रह जावेंगी। इस समय आप लोग श्रीमन्त साहबकी बात रहने दीजिये। आप इस प्रान्तके कर्णधार हैं। सबने स्वीकार किया। विवाद शान्त हो गया। हमारे परमस्नेही श्रीरज्जीलालजी कमरयाको सभाकी तरफसे 'दानवीर' पदवी देनेका आयोजन हो चुका था, परन्तु परस्पर चार सांकके मनोमालिन्यसे वह पदवी स्थगित कर दी गई। इस प्रान्तमें वह एक ही विलक्षण पुरुष था, जिसने एक लाख रुपया लगाकर विद्यालय भवन निर्माण कराया था। इसके बाद एक बार पपौरामें परवार सभाका अधिवेशन हुआ जिसका अध्यक्ष मैं था, परन्तु इस प्रान्तमें सुधारकोंकी दाल नहीं गल पाई। श्री पं. मोतीलालजीके द्वारा स्थापित वीर-विद्यालयको कुछ सहायता अवश्य मिल गई, पर वह नहींके तुल्य थी। आज जो सर्वत्र परवार लोग फैले हुए हैं वे इसी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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