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मेरी जीवनगाथा
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साधनोंमें व्यय करो। जितना-जितना कषायका उपशम होता जावे उतना-उतना त्यागको वृद्धिरूप करते जाओ। सबसे पहले गृहस्थावास्था अन्यायसे जो धनार्जन करते थे उसका संवर करो एवं अन्यायके जो विषय थे उन्हें त्यागो। भोजन ऐसा करो जो अभक्ष्य न हो। दानशाला खोलो, परन्तु उनमें शुद्ध भोजनादिकी व्यवस्था हो। औषधालय खोलो, परन्तु उनमें शुद्ध औषधिकी व्यवस्था करो। विद्यालय खोलो, परन्तु उनमें स्वपरभेदज्ञानकी शिक्षाके मुख्य साधन जुटाओ। मन्दिर बनवाओ, परन्तु उनमें ऐसी प्रतिमा पधराओ कि उसे देखकर प्राणीमात्रको शान्ति आजावे। मेरी निजी सम्मति तो यह है कि एक ऐसा मन्दिर बनवाना चाहिये कि जिसमें सब मतवालोंकी सुन्दरसे सुन्दर मूर्तियाँ और उनके ऊपर संगमर्मरमें उनका इतिहास लिखा रहे। जैसे कि दुर्गाकी मूर्तिके साथ दुर्गा सप्तशती। इसी प्रकार प्रत्येक देवताकी मूर्तिके साथ संगमर्मरमें विशाल पटिये पर उसका इतिहास रहे। इन सबके अन्तमें श्रीआदिनाथ स्वामीकी मूर्ति अपने इतिहासके साथमें रहे और अन्तमें एक सिद्धभगवान्की मूर्ति रहे । यह तो देव-मन्दिरकी व्यवस्था रही। इसके बाद साधुवर्गकी व्यवस्था रहना चाहिये। सर्वमतके साधुओंकी मूर्तियाँ तथा उनका इतिहास और अन्तमें साधु, उपाध्याय, आचार्यकी मूर्तियाँ एवं उनका इतिहास रहे। मन्दिरके साथमें एक बड़ा भारी पुस्तकालय हो जिसमें सर्व आगमोंका समूह हो। प्रत्येक मतवालोंको उसमें पढ़नेका सुभीता रहे। हर एक विभागमें निष्णात विद्वान् रहें जो कि अपने मतकी मार्मिक स्थिति सामने रख सकें। यह ठीक है कि यह कार्य सामान्य मनुष्यों के द्वारा नहीं हो सकता, पर असम्भव भी नहीं है। एक करोड़ तो मन्दिर और सरस्वती-भवनमें लग जावेगा और एक करोड़के ब्याजसे इसकी व्यवस्था चल सकती है। इसके लिए सर्वोत्तम स्थान बनारस है। हमारी तो कल्पना है कि जैनियोंमें अब भी ऐसे व्यक्ति हैं कि जो अकेले ही इस महान् कार्यको कर सकते हैं। धर्मके विकासके लिए तो हमारे पूर्वज लोगोंने बड़े-बड़े राज्यादि त्याग दिये। जैसे माता के उदरसे जन्में वैसे ही चले गये। ऐसे-ऐसे उपाख्यान आगमोंमें मिलते हैं कि राजाके विरक्त होनेपर सहस्रों विरक्त हो गये। जिनके भोजनके लिये देवोंके द्वारा सामग्री भेजी जाती थी, वे दिगम्बर पदका आलम्बन कर भिक्षावृत्ति अंगीकार करते हैं। जिनके चलानेके लिए नाना प्रकार के वाहन सदा तैयार रहते थे वे युगप्रमाण भूमिको निरखते हुए नंगे पैर गमन करते हुए कर्मबन्धन को नष्ट करते हैं।
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