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________________ प्रभावना 253 नहीं जितना कि दो रोटियाँ देना है। इस पञ्चम कालमें प्रायः दुःखी प्राणी बहुत हैं, अतः अपनी सामर्थ्य के अनुकूल उनके दुःख दूर करनेमें प्रयास करो। वे आपसे आप धर्ममें प्रेम करने लगेंगे। 'जैनधर्मके अनुयायी केवल पन्द्रह लाख रह गये....इतना कहनेसे ही काम न चलेगा। ‘पञ्चमकाल है। इसमें तो धर्मका हास होना ही है। वीरप्रभु ने ऐसा ही देखा है....इस प्रकारके विचारोंमें कुछ सार नहीं। प्रतिदिन व्यापार करते हो, टोटा भी पड़ता है और नफा भी होता है। क्या जब टोटा पड़ता है तब व्यापार त्याग देते हो? नहीं; तब धर्ममें इतनी निराशताका उपयोग क्यों ? धर्मके लिये यथाशक्ति द्रव्यका सदुपयोग करो। यही सच्ची प्रभावना है। बहुतसे महानुभाव हैं कि जिनके सजातीय बन्धु तो आजीविका विहीन होकर इतस्ततः भ्रमण कर रहे हैं पर वे हजारों रुपये प्रतिष्ठा आदिमें व्यय कर रहे हैं और खूबीकी बात यह है कि सजातीय बन्धुओंकी अवस्थाके सुधारनेमें एक पैसा देनेमें भी उदारताका परिचय नहीं देते। क्या यह प्रभावना है ? ऐसा देखा गया है कि मनुष्य जिनसे हजारों रुपये अर्जन कर इस लोकमें प्रतिष्ठाको प्राप्त हुए हैं और जिनके द्रव्यसे धर्म कर सिंघई, सेठ या श्रीमन्त बननेके पात्र हुए हैं, उन्हींके नन्हें-नन्हें बालकों पर जो कि अन्नके लिए तरस रहे हैं दया न करके मनोनीत कार्योंमें द्रव्य व्यय कर धर्मात्मा बननेका प्रयत्न करते हैं; यह क्या उचित है ? यह क्या धर्मका स्वरूप है ? इसका मूल कारण अन्तरंगमें अभिप्रायकी मलिनता है। जिनका अभिपाय निर्मल है वे जो भी कार्य करेंगे, यथायोग्य करेंगे। गर्मीके दिनमें प्राणी तृष्णासे आतुर रहते हैं, अतः उन्हें पानीसे सन्तुष्ट करना उचित है। आजकल संसारमें अधिकतर मनुष्य बेकार हो गये हैं। उन्हें यथायोग्य कार्यमें लगा देना ही उचित है। आगमकी तो यह आज्ञा है कि द्रव्यक्षेत्रादि निमित्तको देखकर द्रव्यादिकी व्यवस्था करना चाहिये । वर्तमानमें अनेक मनुष्य अन्नके बिना अपना धर्म छोड़कर अन्य धर्म अंगीकार कर लेते हैं। कोई उनकी रक्षा करनेवाला नहीं। द्रव्यका सदुपयोग यही है कि दुःखी प्राणियोंकी रक्षामें लगाया जावे। प्रत्येक आत्मामें धर्म है; परन्तु कर्मोदयकी बलबत्तासे उसका विकास नहीं हो पाता। यदि भाग्योदयसे तुम्हारी आत्मामें उनके विकासका अवसर आता है तो इस बाह्य द्रव्यसे ममता छोडकर नैर्ग्रन्थपद धारण करो। यदि इतनी योग्यता नहीं तो बाह्य सामग्री तुम्हें उपलब्ध है, उसे उसीके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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